________________ तृतीय प्रतिपत्ति तिर्यक्लोक के प्रसंग में द्वीपसमुद्र वक्तव्यता] [343 तिर्यक्लोक के प्रसंग में द्वीपसमुद्र-वक्तव्यता 123. कहि णं भंते ! दोवसमुद्दा पण्णत्ता? केवइया णं मंते ! दीवसमुद्दा पण्णत्ता केमहालया णं भंते ! वोवसमुद्दा पण्णत्ता? किसंठिया णं भंते ! दीवसमुद्दा पण्णता ? किमाकारभावपडोयरा णं भंते ! वीवसमुहा पण्णता ? गोयमा ! जंबुद्दीवाइया दीवा लवणाइया समुद्दा संठाणओ एकविहविहाणा वित्थारओ मणेगविधविहाणा दुगुणा दुगुणे पड़प्पाएमाणा पड़प्पाएमाणा पवित्थरमाणा पवित्थरमाणा ओभासमाणा वीचिया बहुउप्पलपउमकुमुदलिणसुभगसोगंषियपोंडरीयमहापोंडरीयसतपत्तसहस्सपत्त पप्फुल्लकेसरोवचिया पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइयापरिक्खित्ता पत्तेयं पत्तेयं वणखंडपरिक्खित्ता अस्सि तिरियलोए असंखेज्जा वीवसमुद्दा सयंभरमणपज्जवसाणा पण्णत्ता समणाउसो! [123] हे भगवन् ! द्वीप समुद्र कहां अवस्थित हैं ? भगवन् ! द्वीपसमुद्र कितने हैं ? भगवन् ! वे द्वीपसमुद्र कितने बड़े हैं ? भगवन् ! उनका प्राकार कैसा है ? भंते ! उनका प्राकारभाव प्रत्यवतार (स्वरूप) कैसा है ? गौतम ! जम्बूद्वीप से प्रारम्भ होने वाले द्वीप हैं और लवणसमुद्र से प्रारभ्भ होने वाले समुद्र हैं / वे द्वीप और समुद्र (वृत्ताकार होने से) एकरूप हैं। विस्तार की अपेक्षा से नाना प्रकार के हैं अर्थात् दूने दूने विस्तार वाले हैं, प्रकटित तरंगों वाले हैं, बहुत सारे उत्पल पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक शतपत्र, सहस्रपत्र कमलों के विकसित पराग से सुभोभित हैं / ये प्रत्येक पद्मवरवेदिका से घिरे हुए हैं, प्रत्येक के आसपास चारों ओर वनखण्ड हैं / हे आयुष्मन् श्रमण ! इस तिर्यक्लोक में स्वयंभूरमण समुद्रपर्यन्त असंख्यात द्वीपसमुद्र कहे गये हैं / विवेचन-ज्योतिष्क देव तिर्यक्लोक में हैं, अतएव तिर्यक्लोक से सम्बन्धित द्वीपों और समुद्रों की वक्तव्यता इस सूत्र में कही गई है। श्री गौतम स्वामी ने प्रश्न किया कि द्वीप और समुद्र कहाँ स्थित हैं ? वे कितने हैं ? कितने बड़े हैं ? उनका प्राकार कैसा है और उनका प्राकार भाव प्रत्यवतार अर्थात् स्वरूप किस प्रकार का है? इस तरह अवस्थिति, संख्या, प्रमाण संस्थान और स्वरूप को लेकर द्वीप-समुद्रों की पृच्छा की गई है / भगवान् ने इन प्रश्नों का उत्तर देने के पूर्व द्वीप-समुद्रों को आदि बताई है / प्रादि के विषय में प्रश्न न होने पर भी आगे उपयोगी होने से पहले आदि बताई है। साथ ही यह भी सूचित किया है कि गुणवान् शिष्य को उसके द्वारा न पूछे जाने पर भी तत्त्वकथन करना चाहिए / प्रभु ने फरमाया कि सब द्वीपों की आदि में जम्बूद्वीप है और सब समुद्रों की प्रादि में लवणसमुद्र है। सब द्वीप और समुद्र वृत्त (गोलाकार) होने से एक प्रकार के संस्थान वाले हैं परन्तु विस्तार की भिन्नता के कारण वे अनेक प्रकार के हैं। जम्बूद्वीप एक लाख योजन विस्तार वाला है / उसको घेरे हुए दो लाख योजन का लवणसमुद्र है, उसको घेरे हुए चार लाख योजन का धातकोखण्ड द्वीप है / इस प्रकार आगे आगे का द्वीप ओर समुद्र दुगुने-दुगुने विस्तार वाला है। अर्थात् ये द्वीप और समुद्र दूने दूने विस्तार वाले होते जाते हैं। ये द्वीप और समुद्र दृश्यमान जलतंरगों से तरंगित हैं / यह विशेषण समुद्रों पर तो स्पष्टतया संगत है ही किन्तु द्वीपों पर भी संगत है क्योंकि द्वीपों में भी नदी, तालाब तथा जलाशयों में तरंगों का सद्भाव है ही। ये द्वीप-समुद्र नाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org