________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र वाला के योजन की ऊँचाई पर एक सौ दस योजन के बाहल्य में एवं तिरछे असंख्यात योजन में ज्योतिष्क क्षेत्र है, जहाँ ज्योतिष्क देवों के तिरछे, असंख्यात लाख ज्योतिष्क विमानावास हैं। वे विमान प्राधे कबीठ के आकार के हैं और पूर्ण रूप से स्फटिकमय हैं। वे सामने से चारों ओर ऊपर उठे (निकले) हुए, सभी दिशाओं में फैले हुए तथा प्रभा से श्वेत हैं। विविध मणियों, स्वर्ण और रत्नों की छटा से वे चित्र विचित्र हैं, हवा से उड़ती हुई विजय-वैजयन्ती, पताका, छत्र पर छत्र (अतिछत्र) से युक्त हैं / वे बहुत ऊंचे गगनतलचुंबी शिखरों वाले हैं / उनको जालियों में रत्न जड़े हुए हैं तथा वे विमान पिंजरा (आच्छादन) हटाने पर प्रकट हुई वस्तु को तरह चमकदार हैं / वे मणियों और रत्नों की स्तूपिकाओं से युक्त हैं। उनमें शतपत्र और पुण्डरीक कमल खिले हुए हैं। तिलकों और रत्नमय अर्धचन्द्रों से वे चित्र-विचित्र हैं तथा नानामणिमय मालाओं से सुशोभित हैं। वे अन्दर और बाहर से चिकने हैं। उनके प्रस्तट सोने की रुचिर बालवाले हैं। वे सुखद स्पर्शवाले, श्री से सम्पन्न, सुरूप, प्रसन्नता पैदा करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप (प्रतिरमणीय) और अतिरूप (बहुत सुन्दर) हैं। इन विमानों में बहुत से ज्योतिष्क देव निवास करते हैं / वे इस प्रकार हैं-वृहस्पति, चन्द्र, सूर्य, शुक्र, शनैश्चर, राहु, धूमकेतु, बुध एवं अंगारक (मंगल) / ये तपे हुए तपनीय स्वर्ण के समान वर्णवाले (किंचित् रक्त वर्ण) हैं / तथा ज्योतिष्क क्षेत्र में विचरण करने वाले ग्रह, गति में रत रहने प्रकार के नक्षत्रगण, नाना पाकारों के पांच वर्णों के तारे तथा स्थितलेश्या वाले, संचार करने वाले, अविश्रान्त मण्डलाकार गति करने वाले ये सब ज्जोतिष्कदेव इन विमानों में रहते हैं / इन सबके मुकुट में अपने अपने नाम का चिह्न होता है। ये महद्धिक होते हैं यावत् दसों दिशाओं को प्रभासित करते हुए विचरते हैं / ये ज्योतिष्क देव वहाँ अपने अपने लाखों विमानावासों का, अपने हजारों सामानिक देवों का, अपनी अग्रमहिषियों, अपनी परिषदों का, अपनी सेना और सेनाधिपति देवों का, हजारों प्रात्मरक्षक देवों का और बहुत से ज्योतिष्क देवों और देवियों का आधिपत्य करते हुए रहते हैं। इन्हीं में ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज चन्द्रमा और सूर्य दो इन्द्र हैं, जो महद्धिक यावत् दसों दिशाओं को प्रकाशित करते हैं। वे अपने लाखों विमानावासों का, चार हजार सामानिक देवों का, चार अग्रहिषियों का तीन परिषदों का, सात सेना और सेनाधिपतियों का सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत से ज्योतिष्क देव-देवियों का आधिपत्य करते हुए विचरते हैं। इन सूर्य और चन्द्र इन्द्रों की तीन तीन परिषदाएं हैं। उनके नाम तुंबा, त्रुटिता और प्रेत्या हैं / प्राभ्यन्तर परिषद् तुंबा कहलाती है, मध्यम परिषद् त्रुटिता है और बाह्य परिषद् प्रेत्या है / इन परिषदों में देवों और देवियों की संख्या तथा उनकी स्थिति पूर्ववणित काल इन्द्र की तरह जाननी चाहिए / परिषदों का अर्थ आदि अधिकार चमरेन्द्र के वर्णन के अनुसार जानना चाहिए। सूर्य की तरह हो चन्द्रमा का अधिकार भी समझ लेना चाहिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org