________________ 308] [जीवाजीवाभिगमसूत्र परिणत गाय का दूध जो गुड, शक्कर, मिश्री मिलाया हुया, मंदाग्नि पर पकाया गया तथा शुभवर्ण, शुभगंध, शुभरस और शुभस्पर्श से युक्त हो, ऐसे गोक्षीर जैसा वह स्वाद होता है क्या ? गौतम ! यह बात समर्थित नहीं है। उस पृथ्वी का स्वाद इससे भी अधिक इष्टतर यावत् मनोज्ञतर होता है / हे भगवन् ! वहां के पुष्पों और फलों का स्वाद कैसा होता है ? गौतम ! जैसे चातुरंतचक्रवर्ती का भोजन जो कल्याणभोजन के नाम से प्रसिद्ध है, जो लाख गायों से निष्पन्न होता है, जो श्रेष्ठ वर्ण से, गंध से, रस से और स्पर्श से युक्त है, प्रास्वादन के योग्य है, पुन: पुन: प्रास्वादन योग्य है, जो दीपनीय (जठराग्निवर्धक) है, वहणीय (धातुवृद्धिकारक) है, दर्पणीय (उत्साह प्रादि बढ़ाने वाला) है, मदनीय (मस्ती पैदा करने वाला) है और जो समस्त इन्द्रियों को और शरीर को आनन्ददायक होता है, क्या ऐसा उन पुष्पों और फलों का स्वाद है ? गौतम ! यह बात ठीक नहीं है। उन पुष्प-फलों का स्वाद उससे भी अधिक इष्टतर, कान्ततर, प्रियतर, मनोज्ञतर और मनामतर होता है। हे भगवन् ! उक्त प्रकार के आहार का उपभोग करके वे कैसे निवासों में रहते हैं ? आयुष्मन् गौतम ! वे मनुष्य गेहाकार परिणत वृक्षों में रहते हैं / भगवन् ! उन वृक्षों का प्राकार कैसा होता है ? गौतम ! वे पर्वत के शिखर के आकार के, नाट्यशाला के आकार के, छत्र के प्राकार के, ध्वजा के आकार के, स्तूप के आकार के, तोरण के आकार के, गोपुर जैसे, वेदिका जैसे, चोप्याल (मत्तहाथी) के आकार के, अट्टालिका के जैसे, राजमहल जैसे, हवेली जैसे, गवाक्ष जैसे, जल-प्रासाद जैसे, वल्लभी, (छज्जावाले घर) के आकार के हैं तथा हे आयुष्मन् श्रमण ! और भी वहाँ वृक्ष हैं जो विविध भवनों, शयनों, प्रासनों आदि के विशिष्ट प्राकारवाले और सुखरूप शीतल छाया वाले हैं। 111. (16) अस्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दोवे गेहाणि वा गेहावणाणि वा ? जो तिणठे समझें / रुक्खगेहालया णं ते मणुयगणा पण्णत्ता, समणाउसो ! अस्थि णं भंते / एगोरुयदीवे दीवे गामाइ वा नगराइ वा जाव सन्निवेसाइ वा ? णो तिणठे समझें / जहिच्छिय कामगामिणो ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो! अत्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दीवे असीइ वा मसीइ वा कसीइ वा पणीइ वा वणिज्जाइ वा ? नो तिणठे समझें / ववगयअसिमसिकिसिपणियवाणिज्जा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो। 1. पुण्ड जाति के इक्षु को चरने वाली एक लाख गायों का दूध पचास हजार गायों को पिलाया जाय, उन पचास हजार गायों का दूध पच्चीस हजार गायों को पिलाया जाय, इस तरह से आधी-प्राधी गायों को पिलाने के क्रम से वैसे दूध को पी हुई गायों में की अन्तिम गाय का जो दूध हो, उस दूध से बनाई हुई खीर जिसमें विविध मेवे आदि द्रव्य डाले गये हों वह चक्रवर्ती का कल्याणभोजन कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org