________________ तृतीय प्रतिपत्ति: एकोहक मनुष्यों की स्थिति आदि] 1311 एगोश्य परिक्खेको नव चेव सयाई अउणपन्नाई। बारसपन्नहाई हयकण्णाईणं परिक्खेवो // 1 // आयंसमुहाईणं पन्नरसेकासीए जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवणं; एवं एएण कमेण उवउज्जिउण यध्या चत्तारि चत्तारि एग पमाणा / जाणत्तं ओगाहे विक्खंमे परिक्खेवे पढम-बीयतइय-चउक्काणं उग्गहो विक्खंभो परिक्खेवो मणिओ। चउत्थ चउक्के छजोयणसयाई आयामविक्खंमेणं अट्ठारसससाणउए जोयणसए परिक्खेवेणं / पंचम चउक्के सत्तजोयणसयाई आयामविक्खंभेणं बावीसं तेरसोत्तरे जोयणसए परिक्खेवेणं / छट्ठ चउक्के अट्ठजोयणसयाई आयामविक्खंभेणं पणुधीसं एगुणतीस जोयणसए परिक्खेवणं / सत्तम चउक्के नवजोयणसयाई आयामविक्खमेणं दो जोयणसहस्साइं अट्ठपणयाले जोयसणए परिक्खेवेणं / जस्स य जो विक्खंभो उग्गहो तस्स तत्तिओ चेव / पढमाइयाण परिरओ जाव सेसाण अहिओ उ // 2 // सेसा जहा एगोरुयदीवस्स जाव सुद्ध दंतदीवे देवलोकपरिग्गहा गं ते मणयगणा पण्णता . समणाउसो। कहिं गं भंते ! उत्तरिल्लाणं एगोरुयमणुस्साणं एगोरुयवीवे णामं दीवे पण्णते? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पश्वयस्स उत्तरेणं सिहरिस्स बासधरपव्वयस्स उत्तरपुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुई तिण्णि जोयणसयाई ओगाहित्ता एवं जहा दाहिणिल्लाणं तहा उत्तरिल्लाणं भाणियध्वं / णवरं सिहरिस्स वासहरपवयस्स विविसासु; एवं जाय सुद्धदंतदोवे त्ति जाव से तं अंतरदीवगा। / [112] हे भगवन् ! दाक्षिणात्य हयकर्ण मनुष्यों का हयकर्ण नामक द्वीप कहाँ कहा गया है ? गौतम ! एकोरुक द्वीप के उत्तरपूर्वी ( ईशानकोण के) चरमान्त से लवणसमुद्र में चार सौ योजन आगे जाने पर वहाँ दाक्षिणात्य हयकर्ण मनुष्यों का हयकर्ण नामक द्वीप कहा गया है। वह चार सौ योजनप्रमाण लम्बा-चौड़ा है और बारह सौ पैंसठ योजन से कुछ अधिक उसकी परिधि है। वह एक पावरवेदिका से मण्डित है / शेष वर्णन एकोरुक द्वीप की तरह जानना चाहिए। हे भगवन् ! दाक्षिणात्य गजकर्ण मनुष्यों का गजकर्ण द्वीप कहाँ है आदि पृच्छा ? गौतम ! प्राभाषिक द्वीप के दक्षिण-पूर्वी (आग्नेयकोण के) चरमान्त से लवणसमुद्र में चार सो योजन आगे जाने पर गजकर्ण द्वीप है / शेष वर्णन हयकर्ण मनुष्यों की तरह जानना चाहिए / इसी तरह गोकर्ण मनुष्यों की पृच्छा ? गौतम ! वैषाणिक द्वीप के दक्षिण-पश्चिमी (नैऋत्यकोण के) चरमांत से लवणसमुद्र में चार सो योजन जाने पर वहाँ गोकर्णद्वीप है। शेष वर्णन ह्यकर्ण मनुष्यों की तरह जानना चाहिए। भगवन् ! शष्कुलिकर्ण मनुष्यों की पृच्छा ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org