Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तृतीय प्रतिपपत्ति: देव वर्णन] [327 इन भवनों में पूर्वोक्त बहुत से भवनवासी देव रहते हैं। उन भवनवासी देवों की दस जातियां हैं-असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार / उन दसों जातियों के देवों के मुकुट या प्राभूषणों में अंकित चिह्न क्रमशः इस प्रकार हैं 1. चूडामणि, 2. नाग का फन, 3. गरुड, 4. वज्र, 5. पूर्णकलश से अंकित मुकुट, 6. सिंह, 7. मकर, 8. होस्ति का चिह्न, 9. श्रेष्ठ अश्व और 10. वद्ध मानक (सिकोरा)। वे भवनवासी देव उक्त चिह्नों से अंकित, सुरूप, महद्धिक, महाद्युति वाले, महान् बलशाली, महायशस्वी, महान् अनुभाग (प्रभाव) व अति सुख वाले, हार से सुशोभित वक्षःस्थल वाले, कड़ों और बाजू बंदों से स्तम्भित भुजा वाले, कपोलों को छूने वाले कुण्डल अंगद, तथा कर्णपीठ के धारक, हाथों में विचित्र (नानारूप) प्राभूषण वाले, विचित्र पुष्पमाला और मस्तक पर मुकूट धारण किये हए, कल्याणकारी उत्तम वस्त्र पहने हुए, कल्याणकारी श्रेष्ठ माला और अनुलेपन के धारक, दैदीप्यमान शरीर वाले, लम्बी वनमाला के धारक तथा दिव्य वर्ण से, दिव्य गंध से, दिव्य स्पर्श से, दिव्य संहनन (शक्ति) से, दिव्य प्राकृति से, दिव्य ऋद्धि से, दिव्य द्यति से, दिव्य प्रभा से, दिव्य छाया (शोभा) से, दिव्य अचि (ज्योति) से, दिव्य तेज से एवं दिव्य लेश्या से दसों दिशाओं को प्रकाशित करते हुए, सुशोभित करते हुए वे अपने वहां अपने-अपने भवनावासों का, अपने-अपने हजारों सामानिक देवों का, अपने-अपने प्रायस्त्रिश देवों का, अपने-अपने लोकपालों का, अपनी-अपनो अग्रमहिषियों का, अपनी-अपनी परिषदाओं का, अपने-अपने सैन्यों (अनीकों) का, अपने-अपने सेनाधिपतियों का, अपने-अपने प्रात्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत से भवनवासी देवों और देवियों का आधिपत्य, पौरोहित्य (महानता), आश्विरत्व (प्राज्ञा पालन कराने का प्रभुत्व) एवं सेनापतित्व आदि करतेकराते हुए तथा पालन करते-कराते हुए अहत (अव्याहत-व्याघात रहित) नृत्य, गीत, वादित्र, तंत्री, तल, ताल, त्रुटित (वाद्य) और धनमृदंग बजाने से उत्पन्न महाध्वनि के साथ दिव्य एवं उपभोग्य भोगों को भोगते हुए विचरते हैं / ___ सामान्यतया भवनवासी देवों के प्रावास-निवास सम्बन्धी प्रश्नोत्तर के बाद विशेष विवक्षा में असुरकुमारों के आवास-निवास सम्बन्धी प्रश्न किया गया है / इसके उत्तर में कहा गया है कि रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर व नीचे के एक-एक हजार योजन छोड़कर शेष एक लाख अठहत्तर हजार योजन के देशभाग में असुरकुमार देवों के चौसठ लाख भवनावास हैं। वे भवन बाहर से गोल, अन्दर से चौरस, नीचे से कमल को कणिका के प्राकार के हैं-आदि भवनावासों का वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए / उन भवनावासों में बहुत से असुरकुमार देव रहते हैं जो काले, लोहिताक्ष रत्न तथा बिम्बफल के समान अोठों वाले, श्वेत पुष्पों के समान दांत बाले, काले केशों वाले, बाएँ एक कुण्डल के धारक, गीले चन्दन से लिप्त शरीरवाले, शिलिन्ध्र-पुष्प के समान किंचित् रक्त तथा संक्लेश उत्पन्न न करने वाले सूक्ष्म अतीव उत्तम वस्त्र पहने हुए, प्रथम (कुमार) वय को पार किये हुए और द्वितीय वय को अप्राप्त-भद्रयौवन में वर्तमान होते हैं। वे तलभंगक (भुजा का भूषण) त्रुटित (बाहुरक्षक) एवं अन्यान्य श्रेष्ठ आभूषणों से जटित निर्मल मणियों तथा रत्नों से मण्डित भुजाओं वाले, दस मुद्रिकाओं से सुशोभित अंगुलियों वाले, चूडामणि चिह्न वाले, सुरूप, महद्धिक महाद्युतिमान, महायशस्वी, महाप्रभावयुक्त, महासुखी, हार से सुशोभित वक्षःस्थल वाले आदि पूर्ववत् वर्णन यावत् दिव्य एवं उपभोग्य भोगों का उपभोग करते हुए विचरते हैं / For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International