________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र इंदियबलपुटिवद्धणे खुष्पिवासमहणे पहाण-कुथियगुलखंडमच्छंडिघय-उवणीए पमोयगे सहसमियगम्मे हवेज्ज परमइटुंगसंजुत्ते तहेव ते चित्तरसा वि वुमगणा अणेग बहुविविहवीससापरिणयाए मोयणविहीए उक्वेया कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिट्ठति // 7 // [111] (9) हे आयुष्मन् श्रमण ! उस एकोरुक द्वीप में जहां-तहाँ बहुत सारे चित्ररस नाम के कल्पवृक्ष हैं। जैसे सुगन्धित श्रेष्ठ कलम जाति के चावल और विशेष प्रकार की गाय से निसृत दोष रहित शुद्ध दूध से पकाया हुआ, शरद ऋतु के घी-गुड-शक्कर और मधु से मिश्रित अति स्वादिष्ट और उत्तम वर्ण-गंध वाला परमान्न (पायस-खीर या दूधपाक) निष्पन्न किया जाता है, अथवा जैसे चक्रवर्ती राजा के कुशल सूपकारों (रसोइयों) द्वारा निष्पादित चार उकालों से (कल्पों से) सिका हमा, कलम जाति के प्रोदन जिनका एक-एक दाना वाष्प से सीझ कर मृदु हो गया है, जिसमें अनेक प्रकार के मेवा-मसाले डाले गये हैं, इलायची आदि भरपूर सुगंधित द्रव्यों से जो संस्कारित किया गया है, जो श्रेष्ठ वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श से युक्त होकर बल-वीर्य रूप में परिणत होता है, इन्द्रियों की शक्ति को बढ़ाने वाला है, भूख-प्यास को शान्त करने वाला है, प्रधानरूप से चासनी रूप बनाये हुए गुड, शक्कर या मिश्री से युक्त किया हुआ है, गर्म किया हुआ घी डाला गया है, जिसका अन्दरूनी भाग एकदम मुलायम एवं स्निग्ध हो गया है, जो अत्यन्त प्रियकारी द्रव्यों से युक्त किया गया है, ऐसा परम आनन्ददायक परमान (कल्याण भोजन) होता है, उस प्रकार की (भोजन विधि सामग्री) से युक्त वे चित्ररस नामक कल्पवृक्ष होते हैं / उन वृक्षों में यह सामग्री नाना प्रकार के विस्रसा परिणाम से होती है / वे वृक्ष कुश-काश आदि से रहित मूल वाले और श्री से अतीव सुशोभित होते हैं // 7 // मण्यंग नामक कल्पवृक्ष [10] एगोरुयदीवे णं दोवे तत्थ तत्थ बहवे मणियंगा नाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो! जहा से हारहार बट्टणग मउड-कुडल वामुत्तग हेमजाल मणिजाल कणगजालगसुत्तग उच्चिइय कटगा खुडिय एकावलि कंठसत्त मकरिय उरत्थगेवेज्ज सोणि सुत्तग चूलामणि कणग तिलगफुल्लसिद्धस्थय कण्णवालि ससिसूर उसभ चक्कग तलभंग हुडिय हत्यमालग वलक्ख दीणारमालिया चंदसूरमालिया हरिसय केयूर वलयपालंब अंगुलेज्जग कंची मेहला कलाव पयरगपायजाल घंटिय खिखिणि रयणोरजालस्थिमिय धरणेउर चलणमालिया कणगनिगरमालिया कंचनमणि रयण भत्तिचित्ता भूसणविघी बहुपगारा तहेव ते मणियंगा वि दुमगणा प्रणेगबहुविविह वोससा परिणयाए भूसणविहीए उववेया, कुसविकुसविसुद्धरक्खमूला जाव चिट्ठति // 8 // [111] (10) हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोषक द्वीप में यहाँ-वहाँ बहुत से मण्यंग नामक कल्पवृक्ष हैं / जिस प्रकार हार (अठारह लडियों वाला) अर्धहार (नौ लडियों वाला), वेष्टनक (कर्ण का प्राभूषण), मुकुट, कुण्डल, वामोत्तक (छिद्र-जाली वाला प्राभूषण), हेमजालमणिजाल-कनकजाल (ये कान के आभूषण हैं), सूत्रक(सोने का डोरा-उपनयन), उच्चयित कटक (उठा हुआ कड़ा या चूड़ी), मुद्रिका (अंगूठी), एकावली (मणियों की एक सूत्री माला), कण्ठसूत्र, मकराकार प्राभूषण, उरः स्कन्ध प्रैवेयक (गले का आभूषण), श्रोणीसूत्र(करधनी-कदौरा), चूडामणि (मस्तक का भूषण), सोने का तिलक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org