________________ द्वितीय प्रतिपति : अन्तरद्वार] [155 इसी प्रकार ग्रेवेयक देवपुरुषों का भी अन्तर जानना चाहिये / अनुत्तरोपपातिक देवपुरुषों का अन्तर जघन्य से वर्षपृथक्त्व और उत्कृष्ट संख्यात सागरोपम से कुछ अधिक का होता है। विवेचन-पूर्व सूत्र में उसी पर्याय में निरन्तर रहने का कालमान बताया गया था। इस सूत्र में जीव अपनी वर्तमान पर्याय को छोड़ने के बाद पुनः उस पर्याय को जितने समय बाद पुन: प्राप्त करता है, यह कहा है उसको अन्तर कहा जाता है / यहाँ तिर्यंच, मनुष्य और देव पुरुषों के अन्तर की विवक्षा है। सामान्य रूप से पुरुष, पुरुषपर्याय छोड़ने के पश्चात् कितने काल के बाद पुनः पुरुषपर्याय प्राप्त करता है, ऐसा गौतमस्वामी द्वारा प्रश्न किये जाने पर भगवान् कहते हैं कि गौतम ! जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल का अन्तर होता है / इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है जब कोई पुरुष उपशमश्रेणी पर चढ़ कर पुरुषवेद को उपशान्त कर देता है और एक समय के बाद ही मर कर वह देव-पुरुष में ही नियम से उत्पन्न होता है, इस अपेक्षा से एक समय का अन्तर कहा गया है। यहाँ कोई शंका करता है कि स्त्री और नपुंसक भी श्रेणी पर चढ़ते हैं तो उनका अन्तर एक समय का क्यों नहीं कहा ? इसका उत्तर है कि श्रेणी पर आरूढ स्त्री या नपुंसक वेद का उपशमन करने के अनन्तर मर कर तथाविध शुभ अध्यवसाय से मर कर नियम से देव पुरुषों में ही उत्पन्न होते हैं देव स्त्रियों या नपुंसकों में नहीं / अतः उनका अन्तर एक समय नहीं होता। उत्कर्ष से पुरुष का अन्तर वनस्पतिकाल कहा गया है। वनस्पतिकाल को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि 'काल से अनन्त उत्सपिणियां और अनन्त अवसपिणियां उसमें बीत जाती हैं, क्षेत्र से अनन्त लोक के प्रदेशों का अपहार हो जाता है और असंख्येय पुद्गलपरावर्त बीत जाते हैं। वे पुद्गलपरावर्त प्रावलिका के समयों के असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं।' सामान्य से पुरुष का अन्तर बताने के पश्चात् तिर्यक् पुरुष आदि विशेषणों-भेदों की अपेक्षा अन्तर का कथन किया गया है। तिर्यक्योनि पुरुषों का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। इस प्रकार जैसा तिर्यंच स्त्रियों का अन्तर बताया गया है, वही अन्तर तिर्यक् पुरुषों का भी समझना चाहिए। जलचर, स्थलचर, खेचर पुरुषों का भी जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः अन्तर्मुहूर्त और वनस्पतिकाल जानना चाहिए। मनुष्य स्त्रियों का जो अन्तर पूर्व में कहा गया है, वही मनुष्य पुरुषों का भी अन्तर समझना चाहिए / बह इस प्रकार है सामान्यतः मनुष्य-पुरुष का क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल का अन्तर है / धर्मचरण की अपेक्षा जघन्य से एक समय (क्योंकि चारित्र स्वीकार करने के पश्चात गिरकर पुनः एक समय में चारित्रपरिणाम हो सकते हैं), उत्कर्ष से देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त है। 1. 'प्रणताओ उस्सप्पिणीग्रो प्रोसप्पिणीप्रो कालो, खेत्तयो अणंता लोगा, असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, ते णं पुग्गलपरियट्टा प्रावलियाए असंखेज्जइ भागो।' इति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org