Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 170] [जीवाजीवाभिगमसूत्र .. भंते ! अकर्मभूमिक मनुष्य-नपुंसक के विषय में पृच्छा ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट मुहूर्तपृथक्त्व / संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि तक उसी रूप में रह सकते हैं। . विवेचन--पूर्वसूत्र में नपुंसकों की भवस्थिति बताई गई थी। इस सूत्र में उनकी कायस्थिति बताई गई है / कायस्थिति का अर्थ है उस पर्याय को छोड़े बिना लगातार उसी में बना रहना / सतत रूप से उस पर्याय में भयस्थिति को कायस्थिति भी कहते हैं और संचिट्ठणा भी कहते हैं। सामान्य विवक्षा में नपुंसक रूप में उस पर्याय को छोड़े बिना लगातार जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल तक रह सकता है। एक समय की स्पष्टता इस प्रकार है-कोई नपुंसक उपशमश्रेणी पर चढ़ा और अवेदक होने के बाद उपशमश्रेणी से गिरा / नपुंसकवेद का उदय हो जाने पर एक समय के अनन्तर मर कर देव हो गया और पुरुषवेद का उदय हो गया। इस अपेक्षा से नपंसकवेद जघन्य से एक समय तक रहा। __ उत्कर्ष से नपुंसकवेद वनस्पतिकाल तक रहता है। वनस्पतिकाल आवलिका के असंख्येय भाग में जितने समय हैं, उतने पुद्गलपरावर्तकाल का होता है। तथा इस काल में अनन्त उत्सपिणियां और अनन्त अवसपिणियां बीत जाती हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से कहें तो एक समय में एक आकाश-प्रदेश का अपहार करने पर अनन्त लोकों के प्राकाश प्रदेशों का अपहार इतने काल में हो सकता है।' नैरयिक नपुंसक की कायस्थिति की विचारणा में जो उनकी स्थिति है वही जघन्य और उत्कर्ष से उनकी अवस्थिति (संचिट्ठणा) है। क्योंकि कोई नैरयिक मरकर निरन्तर नैरयिक नहीं होता, अतः भवस्थिति ही उनकी कायस्थिति जाननी चाहिए / भवस्थिति से अतिरिक्त उनमें कायस्थिति संभव नहीं है। सामान्य तिर्यंच नपुंसकों की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। अन्तर्मुहूर्त के बाद मरकर दूसरी गति में जाने से या दूसरे वेद में हो जाने से जघन्य भवस्थिति अन्तर्मुहूर्त है / उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है, जिसका स्वरूप ऊपर बताया गया है / विशेष विवक्षा में एकेन्द्रिय नपुंसक की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय नपुंसक की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येयकाल है, 2 जो असंख्येय उत्सपिणियां और असंख्येय अवसपिणियां प्रमाण है और क्षेत्र से असंख्यात लोकों के प्राकाश प्रदेशों के अपहार तुल्य है। इसी प्रकार अपकायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक की काय स्थिति भी कहनी चाहिए। वनस्पति की कायस्थिति वही है जो सामान्य एकेन्द्रिय की कायस्थिति बताई है / अर्थात् जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल / 1. अणंतानो उस्स प्पिणी पोसाप्पिणी कालो, खेत्तप्रो अणंता लोया, असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा-वणस्सइ कालो। 2. उक्कोसेण असंखेज्जं कालं असंखेज्जाप्रो उस्सप्पिणी प्रोसप्पिणीयो कालो खेत्तयो असंखिज्जा लोगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org