Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 228] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ___ इमोसे गंभंते ! रयणप्पभाए पुढवीए गरगा केरिसगा गंधेणं पण्णता ? गोयमा ! से जहाणामए अहिमडेइ वा गोमडेइ वा, सुणगमडेइ वा मज्जारमडेइ वा मणुस्समडेइ वा महिसमडेइ वा मूसगमडेइ वा आसमडेइ वा हत्यिमडेइ वा सोहमंडेइ वा वग्घमडेह वा विगमडेइ वा दीवियमडेइ वा मयकुहियचिरविणट्ठकुणिम-वावण्णदुग्भिगंधे असुइविलोणविगय-बीभत्यदरिसणिज्जे किमिजालाउल संसत्ते, भवेयारवे सिया? जो इणठे समठे, गोयमा! इमोसे णं रयणप्पमाए पुढवीए गरगा एत्तो अणिट्टतरका चेव अकंततरका चेव जाव अमणामतरा चेव गंधेणं पण्णत्ता / एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए / इमोसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए गरगा केरिसया फासेणं पण्णता? गोयमा ! से जहानामए असिपत्तेइ वा खुरपत्तेइ वा कलंबचीरियापत्तेह वा, सतग्गेइ वा कुंतग्गेह वा तोमरग्गेइ वा नारायग्गेइ वा सूलग्गेइ वा लउडग्गेइ वा भिडिपालग्गेइ वा सूचिकलावेइ वा कवियच्छूइ वा विंचुयकंठएइ वा, इंगालेइ वा जालेइ वा मुम्मुरेइ वा अच्चिइ वा अलाएइ या सुखागणी इवा भवे एतारवे सिया? जो तिणठे समठे, गोयमा ! इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए गरगा एतो अणिटुतरा चेय जाव अमणामतरका चेव फासेणं पण्णता / एवं जाव अहे सत्तमाए पुढणीए। [83] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकवास वर्ण की अपेक्षा कैसे कहे गये हैं ? गौतम ! वे नरकावास काले हैं, अत्यन्तकाली कान्तिवाले हैं, नारक जीवों के रोंगटे खड़े कर देने वाले हैं, भयानक हैं, नारक जीवों को अत्यन्त त्रास करने वाले हैं और परम काले हैं इनसे बढ़कर और अधिक कालिमा कहीं नहीं है। इसी प्रकार सातों पृथ्वियों के नारकवासों के विषय में जानना चाहिए। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावास गंध की अपेक्षा कैसे कहे गये हैं ? गौतम ! जैसे सर्प का मृतकलेवर हो, गाय का मृतकलेवर हो, कुत्ते का मृतकलेवर हो, बिल्ली का मृतकलेवर हो, इसी प्रकार मनुष्य का, भैंस का, चूहे का, घोड़े का, हाथी का, सिंह का व्याघ्र का, भेड़िये का, चोते का मृतकलेवर हो जो धीरे-धीरे सूज-फूलकर सड़ गया हो और जिसमें से दुर्गन्ध फूट रही हो, जिसका मांस सड़-गल गया हो, जो अत्यन्त अशुचिरूप होने से कोई उसके पास फटकना तक न चाहे ऐसा घृणोत्पादक और बीभत्सदर्शन वाला और जिसमें कोड़े बिलबिला रहे हों ऐसे मृतकलेवर होते हैं—(ऐसा कहते ही गौतम बोले कि) भगवन् ! क्या ऐसे दुर्गन्ध वाले नरकावास हैं ? तो भगवान् ने कहा कि नहीं गौतम ! इससे अधिक अनिष्टतर, अकांततर यावत् अमनोज्ञ उन नरकावासों को गन्ध है। इसी प्रकार अधःसप्तमपृथ्वी तक कहना चाहिए / हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों का स्पर्श कैसा कहा गया है ? गौतम ! जैसे तलवार की धार का, उस्तरे की धार का, कदम्बचीरिका (तृणविशेष जो बहुत तीक्ष्ण होता है) के अग्रभाग का, शक्ति (शस्त्रविशेष) के अग्रभाग का, भाले के अग्रभाग का, तोमर के अग्रभाग का, बाण के अग्रभाग का, शूल के अग्रभाग का, लगुड़ के अग्रभाग का, भिण्डीपाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org