Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 24.] [जीवाजीदाभिगमसूत्र इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए जेरइया कि सम्मविट्ठी मिच्छविट्ठी सम्मामिच्छविट्ठी? . गोयमा ! सम्मविट्ठी वि मिच्छविट्ठो वि सम्मामिच्छविट्ठी वि, एवं नाव आहेसत्तमाए। इमीसे भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए रइया कि गाणी अण्णाणी? गोयमा ! गाणी वि अण्णाणि वि / जे गाणी ते णियमा तिणाणो, तंजहा-आभिणिबोहियगाणी, सुयणाणी, अवषिणाणी। जे अण्णाणी ते अत्यंगइया दु अण्णाणि, {अत्थेगइया ति अन्नाणी। जे दु अन्नाणि ते णियमा मतिमन्नाणी य सुय-अण्णाणी य / जे ति अनाणि ते णियमा मति-अण्णाणी, सुय-अण्णाणी, विभंगणाणी वि, सेसाणं गाणी वि अण्णाणि वि तिण्णि, जाव अहेसत्तमाए। इमोसे गं भंते ! रयणप्पमाए पुढवीए णेरइया कि मणजोगी वइजोगी कायजोगी ? तिणि वि एवं जाव अहेससमाए। इमोसे गं भंते ! रयणप्पमाए पुढवीए गेरइया कि सागारोवउत्ता मणागारोवउत्ता? गोयमा! सागारोवउत्ता वि अणागारोवउसा वि एवं जाव अहेससमाए पुढवीए। इमोसे गं भंते ! रयणप्यमाए पुढवीए नेरइया मोहिणा केवइयं खेतं जाणंति पासंति ? गोयमा ! जहणणं प्रघटुगाउयाइं उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाई सक्करप्पमाए पु०, जहन्नेणं तिन्नि गाउयाई, उक्कोसेणं अक्षुट्ठाई। एवं अद्धद्धगाउयं पारिहायइ जाव अधेसत्तमाए जहन्नेणं अद्धगाउयं उक्कोसेणं गाउयं। इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं कति समुग्धाता पण्णता? गोयमा ! चत्तारि समुग्धाता पण्णत्ता, तंजहा बेदणासमुग्धाए, कसायसमुग्धाए, मारणंतियसमुग्धाए वेउब्वियसमुग्धाए / एवं जाव आहेससमाए। [88] (2) हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में कितनी लेश्याएं कही गई हैं ? गौतम ! एक कापोतलेश्या कही गई है। इसी प्रकार शर्कराप्रभा में भी कापोतलेश्या है। बालुकाप्रभा में दो लेश्याएं हैं-नीललेश्या और कापोतलेश्या। कापोतलेश्या वाले अधिक हैं और नीललेश्या वाले थोड़े हैं। पंकप्रभा के प्रश्न में एक नीललेश्या कही गई है। धूमप्र मप्रभा के प्रश्न में दो लेश्याएँ कही गई हैं-कृष्णलेश्या और नीललेश्या / नीललेश्या वाले अधिक हैं और कृष्णलेश्या वाले थोड़े हैं / तमःप्रभा में एक कृष्णलेश्या है / सातवीं पृथ्वी में एक परमकृष्णलेश्या है / हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक क्या सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं या सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं ? गौतम ! सम्यग्दृष्टि भी हैं, मिथ्यादृष्टि भी हैं और सम्यग्मिथ्यादृष्टि भी हैं। इसी प्रकार सप्तमपृथ्वी तक कहना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org