________________ तृतीय प्रतिपत्ति : उहेशकार्थसंग्रहणिगाथाएँ] [257 महामाश्रव भी उनके मौजूद है। महामाश्रव और महाक्रिया के कारण असातावेदनीयकर्म उनके प्रचुरमात्रा में है, अतएव वे महाकर्म वाले हैं और इसी कारण वे महावेदना वाले भी हैं। उद्देशकार्थसंग्रहणिगाथाएं 64. पुढवि मोगाहित्ता नरगा संगणमेव बाहल्लं / विक्खंभपरिक्खेवे वणो गंषो य फासो य // 1 // तेसि महालयाए उवमा देवेण होइ कायव्वा / जीवा य पोग्गला बक्कमति तह सासया निरया // 2 // उववायपरीमाणं अवहारुच्चत्तमेव संघयणं / संठाण वण्ण गंधा फासा ऊसासमाहारे // 3 // लेसा विट्ठी नाणे जोगुवओगे तहा समुग्धाया। तत्तो खुहा पिवासा विउवणा वेयणा य भए // 4 // उववालो पुरिसाणं प्रोवम्मं वेयणाए दुविहाए / उन्बट्टण पुढवी उ उववानो सव्वजीवाणं // 5 // एयाओ संगहणिगाहाओ। // बोनो उद्देसओ समत्तो / [94] इस उद्देशक में निम्न विषयों का प्रतिपादन हना है-पृथ्वियों की संख्या, कितने क्षेत्र में नरकवास हैं, नारकों के संस्थान, तदनन्तर मोटाई, विष्कम्भ, परिक्षेप (लम्बाई-चौड़ाई और परिधि) वर्ण, गन्ध, स्पर्श, नरकों की विस्तीर्णता बताने हेतु देव की उपमा, जीव और पुद्गलों की उनमें व्युत्क्रान्ति, शाश्वत् अशाश्वत प्ररूपणा, उपपात (कहाँ से आकर जन्म लेते हैं), एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं, अपहार, उच्चत्व, नारकों के संहनन, संस्थान, वर्ण, गन्ध, स्पर्श, उच्छ्वास, आहार, लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, योग, उपयोग, समुद्घात, भूख-प्यास, बिकुर्वणा, वेदना, भय, पांच महापुरुषों का सप्तम पृथ्वी में उपपात, द्विविध वेदना-उष्णवेदना शीतवेदना, स्थिति, उद्वर्तना, पृथ्वी का स्पर्श और सर्वजीवों का उपपात / / // द्वितीय उद्देशक सम्पूर्ण // 00 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org