Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तृतीय प्रतिपत्ति : पृथ्वीकायिकों के विषय में विशेष जानकारी] [279 सूक्ष्मपृथ्वीकायिक दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त / यह सूक्ष्मपृथ्वीकायिक का कथन हुआ। बादरपृथ्वीकायिक क्या हैं ? बादरपृथ्वीकायिक दो प्रकार के हैं--पर्याप्त और अपर्याप्त / इस प्रकार जैसा प्रज्ञापनापद में कहा, वैसा कहना चाहिए / श्लक्ष्ण (मृदु) पृथ्वीकायिक सात प्रकार के हैं और खरपृथ्वीकायिक अनेक प्रकार के कहे गये हैं, यावत् वे असंख्यात हैं। यह बादरपृथ्वीकायिकों का कथन हुआ। यह पृथ्वीकायिकों का कथन हुआ। इस प्रकार जैसा प्रज्ञापनापद में कहा वैसा पूरा कथन करना चाहिए। वनस्पतिकायिक तक ऐसा ही कहना चाहिए, यावत जहाँ एक वनस्पतिकायिक जीव हैं वहाँ कदाचित संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त वनस्पतिकायिक जानना चाहिए। यह बादरवनस्पतिकायिकों का कथन हुा / यह बनस्पतिकायिकों का कथन हुप्रा / सकायिक जीव क्या हैं ? वे चार प्रकार के कहे गये हैं, यथा--द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय / द्वीन्द्रिय जीव क्या हैं ? वे अनेक प्रकार के कहे गये हैं। इस प्रकार जैसा प्रज्ञापनापद में कहा गया है, वह सम्पूर्ण कथन तब तक करना चाहिए जब तक सर्वार्थसिद्ध देवों का अधिकार है। यह अनुत्तरोपपातिक देवों का कथन हुआ। इसके साथ ही देवों का कथन हुआ, इसके साथ ही पंचेन्द्रियों का कथन हुप्रा और साथ ही सकाय का कथन भी पूरा हुआ। विवेचन-यहाँ छह प्रकार के संसारसमापनक जीव हैं, ऐसा प्रतिपादन करनेवाले प्राचार्यों का मन्तव्य बताया गया है। 1. पृथ्वीकाय, 2. अप्काय, 3. तेजस्काय, 4. वायुकाय, 5. वनस्पतिकाय और 6. त्रसकाय-इन छह भेदों में सब संसारी जीवों का समावेश हो जाता है / इस प्रसंग पर वही सब कहा गया है जो पहले त्रस और स्थावर की प्रतिपत्ति में कहा गया है। अतएव इनके विषय में प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम पद में कही गई वक्तव्यता के अनुसार वक्तव्यता जाननी चाहिए, ऐसी सूचना सूत्रकार ने यहाँ प्रदान की है / जिज्ञासु जन वहाँ से विशेष जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। पृथ्वीकायिकों के विषय में विशेष जानकारी 101. काविहा गं भंते ! पुढवी पण्णता ? गोयमा ! छव्विहा पुढवी पण्णता, तं जहा—सण्हापुढवी, सुद्धपुढवी, बालयापुढवी, मणोसिलापुढवी, सक्करापुढवी, खरपुढवी।। सण्हा पुढवी णं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं एगं वाससहस्स। सुद्धपुढवीय पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं बारसवाससहस्साई। बालयापुढवीए पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहृत्तं, उक्कोसेणं चोद्दसवाससहस्साई। मणोसिलापुढवीए पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सोलसवाससहस्साई। सक्करापुढवीए पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुत्तं उक्कोसेणं अट्ठारसवाससहस्साई। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org