________________ तृतीय प्रतिपप्ति : एकोएकमनुष्यों के एकोस्कद्वीप का वर्णन] [291 हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत के दक्षिण में क्षुल्ल (चुल्ल) हिमवंत नामक वर्षधर पर्वत के उत्तरपूर्व के चरमान्त से लवणसमुद्र में तीन सौ योजन जाने पर दक्षिणदिशा के एकोरुक मनुष्यों का एकोरुक नामक द्वीप कहा गया है। वह द्वीप तीन सौ योजन की लम्बाई-चौड़ाई वाला तथा नौ सौ उनपचास योजन से कुछ अधिक परिधि वाला है। उसके चारों ओर एक पावरवेदिका और एक वनखंड है। वह पद्मवरवेदिका पाठ योजन ऊँची, पांच सौ धनुष चौडाई वाली और एकोरुक द्वीप को सब तरफ से घेरे हुए है। उस पद्मवरवेदिका का वर्णन इस प्रकार है, यथा-उसकी नींव वज्रमय है आदि वेदिका का वर्णन राजप्रश्नीयसूत्र की तरह कहना चाहिए। विवेचन--यहां दक्षिण दिशा के एकोरुकमनुष्यों के एकोरुक द्वीप के विषय में कथन है। एकोरुकमनष्य शिखरीपर्वत पर भी हैं किन्तु वे मेरुपर्वत के उत्तर दिशा में हैं। उनका व्यवच्छद करने के लिए यहाँ 'दक्षिणदिशा के' ऐसा विशेषण दिया गया है। दक्षिणदिशा के एकोरुकमनुष्यों का एकोरुकद्वीप कहाँ है ? यह प्रश्न का भाव है। उत्तर में कहा गया है कि इसी जंबूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत के दक्षिण में तथा चुल्लहिमवान नामक वर्षधर पर्वत के उत्तरपूर्व (ईशानकोण) के चरमान्त से लवणसमुद्र में तीन सौ योजन आगे जाने पर दक्षिणात्य एकोरुकमनुष्यों का एकोरुकद्वीप है। वह एकोरुकद्वीप तीन सौ योजन को लम्बाई-चौड़ाई वाला और नौ सौ उनपचास योजन से कुछ अधिक परिधि वाला है / उसके आसपास चारों ओर एक पद्मवरवेदिका है, उसके चारों ओर एक वनखण्ड है / वह पद्मवरवेदिका पाठ योजन ऊँची, पांच सौ धनुष चौड़ी है। उसका वर्णन राजप्रश्नीय सत्र में किये गये पावरवेदिका के समान जानना चाहिए. जैसेकि उसकी नींव वज्ररत्नों की है, आदि-आदि / पद्मवरवेदिका और वनखण्ड का वर्णन आगे स्वयं सूत्रकार द्वारा कथित जंबूद्वीप की जगती के आगे की पद्मवरवेदिका और बनखण्ड के वर्णन के समान समझना चाहिए / अतएव यहां वह वर्णन नही दिया जा रहा है। 110. सा गं पउमवरवेइया एगेणं वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता। से णं वगरे देसूणाई दो जोयणाई चक्कवालविक्खंभेणं वेड्यासमेणं परिक्खेवेणं पण्णते। ते गं वणसरे किण्हे किण्होभासे एवं जहा रायपसेणइए वणसंडवण्णओ तहेव निरवसेसं भाणियन्वं, तणाण य वाणगंधफासो सहो वावीओ उप्पायपव्यया पुढविसिलापट्टगा य भाणियव्वा जाव एस्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा य देवीमो य आसयंति जाव विहरति / [110] वह पद्मवरवेदिका एक वनखण्ड से सब ओर से घिरी हुई है। वह वनखण्ड कुछ कम दो योजन गोलाकार विस्तार वाला और वेदिका के तुल्य परिधि वाला है। वह वनखण्ड बहुत हरा-भरा और सघन होने से काला और कालीकान्ति वाला प्रतीत होता है, इस प्रकार राजप्रश्नीयसूत्र के अनुसार वनखण्ड का सब वर्णन जान लेना चाहिए / तृणों का वर्ण, गंध, स्पर्श, शब्द तथा बावड़ियाँ, उत्पातपर्वत, पृथ्वीशिलापट्टक प्रादि का भी वर्णन कहना चाहिए। यावत् वहाँ बहुत से वानव्यन्तर देव और देवियां उठते-बैठते हैं, यावत् सुखानुभव करते हुए विचरण करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org