________________ 286] [जीवाजीवामिगमसूत्र से नहीं समझता है / इस सम्बन्ध से यहाँ शुद्धलेश्या वाले और अशुद्धलेश्या वाले अनगार को लेकर ज्ञान-दर्शनविषयक प्रश्न किये गये हैं। अविशुद्धलेश्या से तात्पर्य कृष्ण-नील-कापोत लेश्या से है। असमवहत का अर्थ है वेदनादि समुद्घात से रहित और समबहत का अर्थ है वेदनादि समुद्घात से युक्त / समवहत-असमवहत का मतलब है वेदनादि समुद्घात से न तो पूर्णतया युक्त और न सर्वथा विहीन / अविशुद्धलेश्या वाले अनगार के विषय में छह पालापक इस प्रकार कहे गये हैं(१) असमवहत होकर अविशुद्धलेश्या वाले देवादि को जानना, (2) असमवहत होकर विशुद्धलेश्या वाले देवादि को जानना, (3) समवहत होकर अविशुद्धलेश्या वाले देवादि को जानना, (4) समवहत होकर विशुद्धलेश्या वाले देवादि को जानना, 5) समवहत-असमवहत होकर अविशुद्धलेश्या वाले देवादि को जानना / (6) समवहत-असमवहत होकर विशुद्धलेश्या वाले देवादि को जानना / उक्त छहों आलापकों में अविशुद्धलेश्या वाले अनगार के जानने-देखने का निषेध किया गया है। क्योंकि अविशुद्धलेश्या होने से वह अनगार किसी वस्तु को सम्यक् रूप से नहीं जानता है और नहीं देखता है। विशुद्धलेश्या वाले अनगार को लेकर भी पूर्वोक्त रीति से छह पालापक कहने चाहिए और उन सब में देवादि पदार्थों को जानना-देखना कहना चाहिए। विशुद्धलेश्या वाला अनगार पदार्थों को सम्यक् रूप से जानता और देखता है / विशुद्धलेश्या वाला होने से यथावस्थित ज्ञान-दर्शन होता है अन्यथा नहीं। मूल टीकाकार ने कहा है कि विशुद्धलेश्या वाला शोभन या अशोभन वस्तु को यथार्थ रूप में जानता है / समुद्धात भी उसका प्रतिबन्धक नहीं होता / उसका समुद्घात भी अत्यन्त अशोभन नहीं होता। तात्पर्य यह है कि अविशुद्धलेश्या वाला पदार्थों को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं जानता और नहीं देखता जबकि विशुद्धलेश्या वाला पदार्थों को सही रूप में जानता है और देखता है। सम्यग-मिथ्याक्रिया का एक साथ न होना 104. अण्णउत्थिया णं भंते ! एषमाइक्खंति एवं भासेंति, एवं पण्णवेंति एवं परूवेति-- एवं खल एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरे, तंजहा-सम्मत्तकिरियं च मिच्छत्तकिरियं च / जं समय सम्मत्तकिरियं पकरेइ तं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेइ, जं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेइ तं समयं सम्मत्तकिरियं पकरेइ / सम्मत्तकिरियापकरणताए मिच्छत्तकिरियं पकरेइ, मिच्छतकिरिया 1. शोभनमशोभनं वा वस्तु यथावद विशुद्धलेश्यो जानाति / समुद्घातोऽपि तस्याप्रतिबन्धक एव / --मूलटीकायाम् / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org