________________ 288] [जीवाजीवाभिगमसूत्र है और मिथ्याक्रिया भी करता है। सुन्दर अध्यवसाय वाली क्रिया सम्यक्रिया है और असुन्दर अध्यवसाय वाली क्रिया मिथ्याक्रिया है। जिस समय जीव सम्यक्रिया करता है उसके साथ मिथ्याक्रिया भी करता है और जिस समय मिथ्याक्रिया करता है उस समय सम्यक्रिया भी करता है। क्योंकि जीव का स्वभाव उभयक्रिया करने का है। दोनों क्रियाओं को संवलित रूप में करने का जीव का स्वभाव है / अतः जीव जिस किसी भी अच्छी या बुरी क्रिया में प्रवृत्त होता है तो उसका उभयक्रिया करने का स्वभाव विद्यमान रहता है। उभयक्रिया करने का स्वभाव होने से उसकी क्रिया भी उभयरूप होती है / दूध और पानी मिला हुआ होने पर उसे उभयरूप कहना होगा, एकरूप नहीं। अतएव जिस समय जीव सम्यक्रिया कर रहा है उस समय उसके उभयक्रियाकरणस्वभाव की प्रवृत्ति भी हो रही है, अन्यथा सर्वात्मना प्रवृत्ति नहीं हो सकती। उभयकरणस्वभाव की प्रवृत्ति होने से जिस समय सम्यक्रिया हो रही है उस समय मिथ्याक्रिया भी हो रही है और जिस समय मिथ्याक्रिया हो रही है उस समय सम्यक्क्रिया भी हो रही है अतः एक जीव एक समय में एक साथ दोनों क्रियाएं कर सकता है- सम्यक्रिया भी और मिथ्याक्रिया भी।' उक्त अन्यतीथिकों की मान्यता मिथ्या है / प्रभु फरमाते हैं कि गौतम ! एक जीव एक समय में एक ही क्रिया कर सकता है-सम्यक्रिया अथवा मिथ्याक्रिया। वह इन दोनों क्रियाओं को एक साथ नहीं कर सकता क्योंकि इन दोनों में परस्परपरिहाररूप विरोध है। सम्यक्रिया हो रही है तो मिथ्याक्रिया नहीं हो सकती और मिथ्याक्रिया हो रही है तो सम्पक्क्रिया नहीं हो सकती / जीव का उभयकरणस्वभाव है ही नहीं। यदि उभयकरणस्वभाव माना जाय तो मिथ्यात्व की कभी निवृत्ति नहीं होगी और ऐसी स्थिति में मोक्ष का अभाव हो जावेगा। __ अतएव यह सिद्ध होता है कि सम्यक्रिया करते समय मिथ्याक्रिया नहीं करता और मिथ्या क्रिया करते समय सम्यक्रिया नहीं करता। सम्यक्रिया और मिथ्याक्रिया एक दूसरे को छोड़कर रहती हैं, एक साथ नहीं रह सकती / अतएव यही सहो सिद्धान्त है कि एक जीव एक समय में एक समय में एक ही क्रिया कर सकता है-सम्यक्त्वक्रिया या मिथ्याक्रिया, दोनों क्रियाएँ एक साथ कदापि सम्भव नहीं हैं। // तृतीय प्रतिपत्ति के तिर्यक्योनिक अधिकार में द्वितीय उद्देशक समाप्त // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org