Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 284] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ___ इसी तरह अभिनव अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों की निर्लेपना समझनी चाहिए। अभिनव वनस्पतिकायिक जीवों की निर्लेपना सम्बन्धी प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि उन जीवों की न तो जघन्यपद में और न उत्कृष्टपद में निर्लेपना सम्भव है। क्योंकि वे जीव अनन्तानन्त हैं / अतएव वे 'इतने समय में निर्लिप्त या अपहृत हो जावेंगे' ऐसा कहना सम्भव नहीं है / उक्त पद द्वारा वे नहीं कहे जा सकते, अतएव उन्हें 'अयद' कहा गया है। प्रत्युत्पन्न त्रसकायिक जीवों को निर्लेपना का काल जघन्यपद में सागरोपमशतपृथक्त्व है अर्थात् दो सौ सागरोपम से लेकर नौ सौ सागरोपम जितने काल में उन अभिनव प्रसकायिक जीवों का अपहार सम्भव है / उत्कृष्टपद में भी यही सागरोपमशतपृथक्त्व निर्लेपना का काल जानना चाहिए, परन्तु यह उत्कृष्टपदोक्त काल जघन्यपदोक्त काल से विशेषाधिक जानना चाहिए / अविशुद्ध-विशुद्ध लेश्या वाले अनगार का कथन 103. अविसुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे प्रसमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं जाणइ पासइ? गोयमा ! नो इण? सम?। अविसुद्धलेस्से गं भंते ! प्रणगारे असमोहएणं अप्पाणणं विसुद्धलेस्सं देवि देवि अणगारं जाणइ पास? गोयमा ! नो इण8 सम?। अविसुद्धलेस्से गं भंते ! अणगारे समोहएणं अपाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं जाणइ पासइ ? गोयमा ! नो इण8 सम? / अविसुद्धलेस्से अणगारे समोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं जाणइ पासइ ? नो तिण? सम?। अविसुद्धलेस्से गं भंते ! अणगारे समोहयासमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देवि प्रणगारं जाणइ पासइ? नो तिण? सम?। अविसुद्धलेस्से अणगारे समोहयासमोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं जाणइ पासइ? नो तिण8 सम8। विसुद्धलेस्से गं भंते ! अणगारे असमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं जाणा पासइ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org