Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ ततीय प्रतिपसि : विमानों के विषय में प्रश्न] [275 ते णं विमाणा केमहालया पण्णता? गोयमा ! जावइए णं सूरिए उदेइ जावइएणं य सूरिए अत्थमइ एवइया तिण्णोवासंतराई अस्थेगइयस्स देवस्स एक्के विक्कमे सिया। से णं देवे ताए उक्किट्ठाए तुरियाए जाब विवाए देवगइए वोइवयमाणे वोइवयमाणे जाव एगाहं वा दुयाहं वा उक्कोसेणं छम्मासा वीइवएज्जा, अत्थेगइया विमाणं बोइवएज्जा अस्थगइया विमाणं नो वीइवएज्जा, एमहालया णं गोयमा / ते विमाणा पण्णत्ता। अस्थि णं भंते ! विमाणाई' अच्चीणि अच्चिरावत्ताई तहेव जाव अच्चुत्तरडिसगाई ? हंता अस्थि। ते विमाणा केमहालया पण्णता? गोयमा ! एवं जहा सोस्थियाईणि णवरं एवइयाइं पंच उवासंतराइं अत्थेगइयस्स देवस्स एगे विक्कमे सिया, सेसं तं चेव / अस्थि गं भंते ! बिमाणाई कामाई कामावत्ताई जाव कामुत्तरडिसगाई ? हंता अस्थि / ते णं भंते ! विमाणा केमहालया पण्णता? गोयमा ! जहा सोत्योणि णवरं सत्त उवासंतराइं विक्कमे, सेसं तहेव।। अस्थि णं भंते ! विमाणाई विनयाई वेजयंताई जयंताई अपराजिताइं? हंता अस्थि / ते गं भंते ! विमाणा केमहालिया पण्णता? गोयमा! जावइए सूरिए उदेह एवइयाई नव ओवासंतराई, सेसं तं चेव; नो चेव णं ते विमाणे वीइवएज्जा एमहालया णं विमाणा पण्णता, समणाउसो! तिरिक्खजोणियउद्देसो समत्तो। [99] हे भगवन् ! क्या स्वस्तिक नामवाले, स्वस्तिकावर्त नामवाले, स्वस्तिकप्रभ, स्वस्तिककान्त, स्वस्तिकवर्ण, स्वस्तिकलेश्य, स्वस्तिकध्वज, स्वस्तिकशृगार, स्वस्तिककूट, स्वस्तिकशिष्ट और स्वस्तिकोत्तरावतंसक नामक विमान हैं ? हाँ, गोतम ! हैं। भगवन् ! वे विमान कितने बड़े हैं ? गौतम ! जितनी दूरी से सूर्य उदित होता दीखता है और जितनी दूरी से सूर्य अस्त होता दीखता है (यह एक अवकाशान्तर है), ऐसे तीन अवकाशान्तरप्रमाण क्षेत्र किसी देव का एक विक्रम (पदन्यास) हो और वह देव उस उत्कृष्ट, त्वरित यावत् दिव्य देवगति से चलता हुआ यावत् एक दिन, दो दिन उत्कृष्ट छह मास तक चलता जाय तो किसी विमान का तो पार पा सकता है और किसी विमान का पार नहीं पा सकता है / हे गौतम ! इतने बड़े वे विमान कहे गये हैं / हे भगवन् ! क्या अचि, अचिरावर्त आदि यावत् अचिरुत्तरावतंसक नाम के विमान हैं ? हाँ, गौतम ! हैं। 1. टीकाकार के अनुसार 'सोत्थियाई' आदि पाठ यहां है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org