Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तृतीय प्रतिपत्ति : तिर्यग् अधिकार] गौतम ! असंख्यात वर्ष की आयु वालों, अकर्मभूमिकों और अन्तर्वीपिकों को छोड़कर सब जगह से उत्पन्न होते हैं। हे भगवन् ! उन जीवों की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्महर्त और उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवां भाग-प्रमाण स्थिति है / भगवन् ! उन जीवों के कितने समुद्घात कहे गये हैं ? गौतम ! पांच समुद्घात कहे गये हैं, यथा-वेदनासमुद्घात यावत् तैजससमुद्घात / भगवन् ! वे जीव मारणांतिकसमुद्धात से समवहत होकर मरते हैं या असमवहत होकर मरते हैं ? गौतम ! समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं / भगवन् ! वे जीव मरकर अनन्तर कहाँ उत्पन्न होते हैं ? कहाँ जाते हैं ? क्या नैरयिकों में पैदा होते हैं, तिर्यक्योनिकों में पैदा होते हैं ? आदि प्रश्न करना चाहिए। गौतम ! जैसे प्रज्ञापना के व्युत्क्रांतिपद में कहा गया है, वैसा यहाँ कहना चाहिए। (दूसरी प्रतिपत्ति में वह कहा गया है, वहाँ देखें।) हे भगवन् ! उन जीवों की कितने लाख योनिप्रमुख जातिकुलकोटि कही गई हैं ? गौतम ! बारह लाख योनिप्रमुख जातिकुलकोटि कही गई हैं / विवेचन खेचर (पक्षियों) में पाये जाने वाले लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, योग, उपयोग आदि द्वारों की स्पष्टता मूल पाठ से ही सिद्ध है / व्युत्क्रांतिपद से उद्वर्तना समझनी चाहिए, ऐसो सूचना यहाँ की गई है। प्रज्ञापनासूत्र में व्युत्क्रांतिपद है और उसमें जो उद्वर्तना कही गई है वह यहाँ समझनी है। इसी जीवाभिगम सूत्र की द्वितीय प्रतिपत्ति में उसको बताया गया है सो जिज्ञासु वहाँ भी देख सकते हैं। इस सूत्र में खेचर की योनिप्रमुख जातिकुलकोडी बारह लाख कही है। जातिकुलयोनि का स्थूल उदाहरण पूर्वाचार्यों ने इस प्रकार बताया है-जाति से भावार्थ है तिर्यग्जाति, उसके कुल हैंकृमि, कीट, वृश्चिक आदि / ये कुल योनिप्रमुख हैं अर्थात् एक ही योनि में अनेक कुल होते हैं, जैसे छ गण योनि में कृमिकुल, कोटकुल, वृश्चिककुल आदि। अथवा 'जातिकुल' को एक पद माना जा सकता है / जातिकुल और योनि में परस्पर यह विशेषता है कि एक ही योनि में अनेक जातिकुल होते हैं-यथा एक ही छ:गण योनि में कृमिजातिकुल, कीटजातिकुल और वृश्चिकजातिकुल इत्यादि। इस प्रकार एक ही योनि में प्रवान्तर जातिभेद होने से अनेक योनिप्रमुख जातिकुल होते हैं। द्वारों के सम्बन्ध में संग्रहणी गाथा इस प्रकार है जोणीसंगह लेस्सा दिट्टी नाणे य जोग उवयोगे। उववाय ठिई समुग्धाय चयणं जाई-कुलविही उ / / पहले योनिसंग्रह, फिर लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, योग, उपयोग, उपपात, स्थिति, समुद्धात, च्यवन, जातिकुलकोटि का इस सूत्र में प्रतिपादन किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org