________________ तसीय प्रतिपत्ति :नारकों का पुदगलपरिणाम] [259 अतिसोयं अतिउण्हं अतिखहा अतिभयं वा। निरये नेरइयाणं दुक्खसयाइं अविस्सामं // 10 // एस्थ य भिन्नमुहत्तो पोग्गल असुहा य होई अस्साओ। उववाओ उप्पाओ अन्छिसरीरा उ बोडब्या // 11 // नारयउद्देसओ तइयो / से तं नेरइया / [95] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के पुद्गलों के परिणमन का अनुभव करते हैं ? गौतम ! अनिष्ट यावत् अमनाम पुद्गलों के परिणमन का अनुभव करते हैं / इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी के नरयिकों तक कहना चाहिए। इस सप्तमपृथ्वी में प्रायः करके नरवृषभ (लौकिक दृष्टि से बड़े समझे जाने वाले और प्रति भोगासक्त) वासुदेव, जलचर, मांडलिक राजा और महा प्रारम्भ वाले गृहस्थ उत्पन्न होते हैं / 1 // नारकों में अन्तर्मुहूर्त, तिर्यक् और मनुष्य में चार अन्तर्मुहूर्त और देवों में पन्द्रह दिन का उत्तर विकुर्वणा का उत्कृष्ट अवस्थानकाल है / / 2 / / जो पुद्गल निश्चित रूप से अनिष्ट होते हैं, उन्हीं का नरयिक आहार (ग्रहण) करते हैं। उनके शरीर की आकृति प्रति निकृष्ट और हुंडसंस्थान वाली होती है / 3 // सब नरयिकों की उत्तरविक्रिया भी अशुभ ही होती है। उनका वैक्रियशरीर असंहनन वाला और हुंडसंस्थान वाला होता है। 4 / / नारक जीवों का-चाहे वे किसी भी नरकपृथ्वी के हों और चाहे जैसी स्थिति वाले होंजन्म असातावाला होता है, उनका सारा नारकीय जीवन दुःख में ही बीतता है। (सुख का लेश भी वहां नहीं है। ) // 5 // (उक्त कथन का अपवाद बताते हैं-) नैरयिक जीवों में से कोई जीव उपपात (जन्म) के समय ही साता का वेदन करता है, पूर्व सांगतिक देव के निमित्त से कोई नैरयिक थोड़े समय के लिए साता का वेदन करता है, कोई नैरयिक सम्यक्त्व-उत्पत्तिकाल में शुभ अध्यवसायों के कारण साता का वेदन करता है अथवा कर्मानुभाव से-तीर्थंकरों के जन्म, दीक्षा, ज्ञान तथा निर्वाण कल्याणक के निमित्त से साता का वेदन करते हैं / / 6 // सैकड़ों वेदनाओं से अवगाढ होने के कारण दुःखों से सर्वात्मना व्याप्त नैरयिक (दुःखों से छटपटाते हुए) उत्कृष्ट पांच सो योजन तक ऊपर उछलते हैं // 7 // रात-दिन दुःखों से पचते हुए नरयिकों को नरक में पलक मूंदने मात्र काल के लिए भी सुख नहीं है किन्तु दुःख ही दुःख सदा उनके साथ लगा हुआ है // 8 // तेजस-कार्मण शरीर, सूक्ष्मशरीर और अपर्याप्त जीवों के शरीर जीव के द्वारा छोड़े जाते ही तत्काल हजारों खण्डों में खण्डित होकर बिखर जाते हैं। 9 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org