________________ तृतीय प्रतिपत्ति : नारकों का पुद्गलपरिणाम] [261 __ जो पुद्गल अनिष्ट होते हैं वे ही नरयिकों के द्वारा प्राहारादि रूप में ग्रहण किये जाते हैं। उनके शरीर का संस्थान हंडक होता है और वह भी निकृष्टतम होता है। यह भवा ह भवधारणीय को लेकर है क्योंकि उत्तरवैक्रिय संस्थान के विषय में पागे को गाथा में कहा गया है / (3) सब नैरयिकों की विकुर्वणा अशुभ ही होती है / यद्यपि वे अच्छी विक्रिया बनाने का विचार करते हैं तथापि प्रतिकूल कर्मोदय से उनकी वह विकुर्वणा निश्चित ही अशुभ होती है। उनका उत्तरवैक्रिय शरीर और उपलक्षण से भवधारणीय शरीर संहनन रहित होता है, क्योंकि उनमें हड्डियों का ही प्रभाव है तथा उत्तरवैक्रिय शरीर भी हुंडसंस्थान वाला है, क्योंकि उनके भवप्रत्यय से ही हुण्डसंस्थान नामकर्म का उदय होता है / / 4 // रत्नप्रभादि सब नरकभूमियों में कोई जीव चाहे वह जघन्यस्थिति का हो या उत्कृष्टस्थिति का हो, जन्म के समय भी असाता का ही वेदन करता है / पहले के भव में मरणकाल में अनुभव किये हुए महादुःखों की अनुवृत्ति होने के कारण वह जन्म से ही असाता का वेदन करता है, उत्पत्ति के पश्चात् भी असाता का ही अनुभव करता है और पूरा नारक का भव असाता में ही पूरा करता है / सुख का लेशमात्र भी नहीं है / / 5 / / यद्यपि ऊपर की गाथा में नारकियों को सदा दुःख ही दुःख होना कहा है, परन्तु उसका थोड़ासा अपवाद भी है / वह इस छठी गाथा में बताया है-- उपपात से--कोई नारक जीव उपपात के समय में साता का वेदन करता है। जो पूर्व के भव में दाह या छेद आदि के बिना सहज रूप में मृत्यु को प्राप्त हुआ हो वह अधिक संक्लिष्ट परिणाम वाला नहीं होता है / उस समय उसके न तो पूर्वभव में बांधा हुआ प्राधिरूप (मानसिक) दुःख है और न क्षेत्रस्वभाव से होने वाली पीड़ा है और न परमाधार्मिक कृत या परस्परोदीरित वेदना ही है। इस स्थिति में दुःख का प्रभाव होने से कोई जीब साता का वेदन करता है। देवप्रभाव से--कोई जीव देव के प्रभाव से थोड़े समय के लिए साता का वेदन करता है / जैसे कृष्ण वासुदेव की वेदना के उपशम के लिए बलदेव नरक में गये थे। इसी प्रकार पूर्वसांगतिक देव के प्रभाव से थोड़े समय के लिए नैरयिकों को साता का अनुभव होता है / उसके बाद तो नियम से क्षेत्रस्वभाव से होने वाली या अन्य-अन्य वेदनाएँ उन्हें होती ही हैं। ___ अध्यवसाय से--कोई नैरयिक सम्यक्त्व उत्पत्ति के काल में अथवा उसके बाद भी कदाचित् तथाविध विशिष्ट शुभ अध्यवसाय से बाह्य क्षेत्रज आदि वेदनाओं के होते हुए भी साता का अनुभव करता है / आगम में कहा है कि सम्यक्त्व की उत्पत्ति के समय जीव को वैसा ही प्रमोद होता है जैसे किसी जन्मान्ध को नेत्रलाभ होने से होता है / इसके बाद भी तीर्थंकरों के गुणानुमोदन आदि विशिष्ट भावना भाते हुए बाह्य क्षेत्रज वेदना के सहभाव में भी वे सातोदय का अनुभव करते हैं। कर्मानुभव से तीर्थंकरों के जन्म, दीक्षा, ज्ञान तथा निर्वाण कल्याणक आदि बाह्य निमित्त को लेकर तथा तथाविध साता वेदनीयकर्म के विपाकोदय के निमित्त से नैरयिक जीव क्षणभर के लिए साता का अनुभव करते हैं // 6 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org