Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सुतीय प्रतिपत्ति : नरकों में पृथ्वी आदि का स्पर्शावि प्ररूपण] [255 ___ साथ ही इस सूत्र में यह भी बताया गया है कि यह रत्नप्रभापृथ्वी बाहल्य की अपेक्षा सबसे बड़ी है क्योंकि इसकी मोटाई 1 लाख 80 हजार योजन है और आगे-आगे की पृथ्वियों की मोटाई कम है / दूसरी की 1 लाख बत्तीस हजार, तीसरी की एक लाख अट्ठावीस हजार, चौथी की एक लाख बीस हजार, पांचवीं की एक लाख अठारह हजार, छठी की एक लाख सोलह हजार और सातवीं की मोटाई एक लाख आठ हजार है। लम्बाई-चौड़ाई में रत्नप्रभापृथ्वी सबसे छोटी है। इसकी लम्बाई-चौड़ाई एक राजू है। दूसरी पृथ्वी की लम्बाई-चौड़ाई दो राजू की है। तीसरी की तीन राज, चौथी की 4 राज, पांचवीं की 5 राज, छठी की छह राज और सातवीं की सात लम्बाई-चौड़ाई है / बाहल्य में आगे-आगे की पृथ्वी छोटी है और लम्बाई-चौड़ाई में आगे-मागे को पृथ्वी बड़ी है / 93. इमोसे गं भंते !. रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए नरयावास-सयसहस्सेसु इक्कमिक्कसि निरयावासंसि सव्वे पाणा सच्चे भूया सम्वे जीवा सम्धे सत्ता पुढवीकाइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए नेरइयत्ताए उववन्नपुस्वा ? हंता गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो। एवं जाव अहेसत्तमाए पुढवीए गवरं जत्थ जत्तिया णरका। इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेसु जे पुढविकाइया जाव वणप्फइकाइया, ते गं भंते ! जीवा महाकम्मतरा चेव महाकिरियतरा चेव महाआसवतरा चेव महावेयणतरा चेव? हंता गोयमा! इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेसु तं चेव जाव महावेयणतरका चेव / एवं जाव अधेसत्तमाए। [93) हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक में सब प्राणी. सब भूत, सब जीव और सब सत्त्व पृथ्वीकायिक रूप में अप्कायिक रूप में वायुकायिक रूप में वनस्पतिकायिक रूप में और नैरयिक रूप में पूर्व में उत्पन्न हुए हैं क्या ? हां गौतम ! अनेक बार अथवा अनंत बार उत्पन्न हुए हैं। इस प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिए। विशेषता यह है-जिस पृथ्वी में जितने नरकावास हैं उनका उल्लेख वहाँ करना चाहिए / भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों के पर्यन्तवर्ती प्रदेशों में जो पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक जीव हैं, वे जीव महाकर्म वाले, महाक्रिया वाले और महामास्रव वाले और महावेदना वाले हैं क्या ? हाँ, गौतम ! वे रत्नप्रभापृथ्वी के पर्यन्तवर्ती प्रदेशों के पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक जीव महाकर्म वाले, महाक्रिया वाले, महाप्रास्रव वाले और महावेदना वाले हैं / इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org