Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 254 [जीवाजीवामिममसूत्र इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवो दोच्चं पुढवि पणिहाय सम्वमहंतिया बाहल्लेणं सम्वक्खुडिया सम्छतेसु ? ___ हता! गोयमा ! इमा णं रयणप्पभापुढवी दोच्च पुढवि पणिहाय जाद सव्वक्खुडिया सम्वतेसु / दोच्चा णं भंते ! पुढवी तच्चं पुढदि पणिहाय सम्वमहंतिया बाहल्लेणं पुच्छा ? हंता गोयमा ! दोच्चा णं पुढवी जाव सव्वक्खुड्डिया सव्वतेसु / एवं एएणं अभिलावणं जाव छट्टिया पुढवी अहेसत्तमं पुढविं पणिहाय सबक्खुड्डिया सम्वंतेसु / [92] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के भूमिस्पर्श का अनुभव करते हैं ? गौतम ! वे अनिष्ट यावत् अमणाम भूमिस्पर्श का अनुभव करते हैं। इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के जलस्पर्श का अनुभव करते हैं ? गौतम ! अनिष्ट यावत् अमणाम जलस्पर्श का अनुभव करते हैं / इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिए। इसी प्रकार तेजस्, वायु और वनस्पति के स्पर्श के विषय में रत्नप्रभा से लेकर सप्तम पृथ्वी तक के नैरयिकों के विषय में जानना चाहिए। हे भगवन् ! क्या यह रत्नप्रभापृथ्वी दूसरी पृथ्वी की अपेक्षा बाहल्य (मोटाई) में बड़ी है और सन्तिों में लम्बाई चौड़ाई में सबसे छोटी है ? हां, गौतम ! यह रत्नप्रभापृथ्वी दूसरी पृथ्वी की अपेक्षा बाहल्य में बड़ी है और लम्बाईचौड़ाई में छोटी है / भगवन् ! क्या शर्कराप्रभा नामक दूसरी पृथ्वी तीसरी पृथ्वी से बाहल्य में बड़ी और सर्वान्तों में छोटी है ? हाँ, गौतम ! दूसरी पृथ्वी तीसरी पृथ्वी से बाहल्य में बड़ी और लम्बाई-चौड़ाई में छोटी है / इसी प्रकार तब तक कहना चाहिए यावत् छठी पृथ्वी सातवीं पृथ्वी की अपेक्षा बाहल्य में बड़ी और लम्बाई-चौड़ाई में छोटी है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में नरक-पृथ्वियों के भूमिस्पर्श, जलस्पर्श, तेजस-स्पर्श, वायुस्पर्श और वनस्पतिस्पर्श के विषय को लेकर नैरयिकों के अनुभव की चर्चा है। नरयिक जीवों को तनिक भी सुख के निमित्त नहीं हैं अतएव उनको वहाँ की भूमि का स्पर्श आदि सब अनिष्ट, प्रकांत, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमणाम लगते हैं / यद्यपि नरकपृथ्वियों में साक्षात् बादरअग्निकाय नहीं है, तथापि उष्णरूपता में परिणत नरकभित्तियों का स्पर्श तथा परोदीरित वैक्रियरूप उष्णता वहां समझनी चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org