________________ तृतीय प्रतिपत्ति : एक-अनेक-विकुर्वणा] [243 महंताई लोहियकुंघुरुवाई धारामयतुंडाई गोमयकोडसमाणाई विउठवंति, विउम्वित्ता अन्नमन्नस्स कार्य समतुरंगेमागा खायमाणा खायमाणा सयपोरागकिमिया विव चालेमाणा चालेमाणा अंतो अंतो अणुप्पविसमाणा अणुप्पविसमाणा वेदणं उवीरंति उज्जलं जाव दुरहियासं। [9] (2) हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नरयिक क्या एक रूप बनाने में समर्थ हैं या बहुत से रूप बनाने में समर्थ हैं ? गौतम ! वे एक रूप भी बना सकते हैं और बहुत रूप भी बना सकते हैं / एक रूप बनाते हुए वे एक मुद्गर रूप बनाने में समर्थ हैं, इसी प्रकार एक मुसंडी (शस्त्रविशेष), करवत, तलवार, शक्ति, हल, गदा, मूसल, चक्र, बाण, भाला, तोमर, शूल, लकुट (लाठी) और भिण्डमाल (शस्त्रविशेष) बनाते हैं और बहुत रूप बनाते हुए बहुत से मुद्गर भुसंढी यावत् भिण्डमाल बनाते हैं / इन बहुत शस्त्र रूपों की विकुर्वणा करते हुए वे संख्यात शस्त्रों की ही विकुर्वणा कर सकते हैं, असंख्यात की नहीं / अपने शरीर से सम्बद्ध की विकुर्वणा कर सकते हैं, असम्बद्ध की नहीं, सदृश की रचना कर सकते हैं, असदश की नहीं। इन विविध शस्त्रों की रचना करके एक दूसरे नैरयिक पर प्रहार करके वेदना उत्पन्न करते हैं। वह वेदना उज्ज्वल अर्थात् लेशमात्र भी सुख न होने से जाज्वल्यमान होती है उन्हें जलाती है, वह विपुल हैसकल शरीरव्यापी होने से विस्तीर्ण है, वह वेदना प्रगाढ है-- मर्मदेशव्यापी होने से प्रतिगाढ होती है, वह कर्कश होती है (जैसे पाषाणखंड का संघर्ष शरीर के अवयवों को तोड़ देता है उसी तरह से वह वेदना आत्मप्रदेशों को तोड़-सी देती है। वह कटक औषधिपान की तरह कड़वी होती है, वह परुष-कठोर (मन में रूक्षता पैदा करने वाली) होती है, निष्ठुर होती है (अशक्य प्रतीकार होने से दुर्भेद्य होती है) चण्ड होती है (रोद्र अध्यवसाय का कारण होने से), वह तीव्र होती है (अत्यधिक होने से) वह दुःखरूप होती है, वह दुलंघ्य और दुःसह्य होती है / इस प्रकार धूमप्रभापृथ्वी (पांचवीं नरक) तक कहना चाहिए। छठी और सातवीं पृथ्वी के नैरयिक बहुत और बड़े (गोबर के कीट के समान) लाल कुन्थुओं की रचना करते हैं, जिनका मुख मानो वज़ जैसा होता है और जो गोबर के कीड़े जैसे होते हैं। ऐसे कुन्थुरूप की विकुर्वणा करके वे एक दूसरे के शरीर पर चढ़ते हैं, उनके शरीर को बार बार काटते हैं और सो पर्व वाले इक्ष के कीड़ों की तरह भीतर ही भीतर सनसनाहट करते हुए घुस जाते हैं और उनको उज्ज्वल यावत् असह्य वेदना उत्पन्न करते हैं। 89. [3] इमोसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया कि सीयवेवणं वेवंति, उसिण. वेयणं वेवंति, सीसोसिणधेयणं वेदेति ? गोयमा! णो सोयं वेदणं वेदेति, उसिणं वेदणं वेदेति, णो सीयोसिणं, एवं जाव बालयप्पभाए। पंकप्पभाए पुच्छा-गोयमा ! सीयं पि बेयणं वेदेति, उसिणं पि वेयणं वेयंति, नो सीओसिणवेयणं वेयंति / ते बहुतरगा जे उसिणं वेवणं वेदेति, ते थोवयरगा जे सीतं वेवणं वेयंति। 1, यहाँ प्रतियों में ('ते अप्पयरा उपहजोणिया वेदेति') पाठ अधिक हैं जो संगत नहीं है। भूल से लिखा गया प्रतीत होता है। संपादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org