Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तृतीय प्रतिपत्ति: लेश्याविद्वार [241 हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक ज्ञानी हैं या अज्ञानी? गौतम ! ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं / जो ज्ञानी हैं वे निश्चय से तीन ज्ञान वाले हैंभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी / जो अज्ञानी हैं उनमें कोई दो अज्ञान वाले हैं और कोई तीन अज्ञान वाले हैं। जो दो अज्ञान वाले हैं वे नियम से मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी हैं और जो तीन अज्ञान वाले हैं वे नियम से मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी हैं। शेष शर्कराप्रभा प्रादि पृथ्वियों के नारक ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं वे तीनों ज्ञान वाले हैं और जो अज्ञानी हैं वे तोनों अज्ञान वाले हैं / सप्तमपृथ्वी तक के नारकों के लिए ऐसा ही कहना चाहिए। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक मनयोग वाले हैं, वचनयोग वाले हैं या काययोग वाले हैं ? गौतम ! तीनों योग वाले हैं / सप्तमपृथ्वी तक ऐसा ही कहना चाहिए। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नारक साकार उपयोग वाले हैं या अनाकार उपयोग वाले हैं ? गौतम ! साकार उपयोग वाले भी हैं और अनाकार उपयोग वाले भी हैं। सप्तमपृथ्वी तक ऐसा ही कहना चाहिए। [हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक अवधि से कितना क्षेत्र जानते हैं, देखते हैं ? गौतम ! जघन्य से साढ़े तीन कोस, उत्कृष्ट से चार कोस क्षेत्र को जानते हैं, देखते हैं / शर्कराप्रभा के नैरयिक जघन्य तीन कोस, उत्कर्ष से साढ़े तीन कोस जानते-देखते हैं। इस प्रकार प्राधाआधा कोस घटाकर कहना चाहिए यावत् अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिक जघन्य आधा कोस और उत्कर्ष से एक कोस क्षेत्र जानते-देखते हैं। ] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के कितने समुद्घात कहे गये हैं ? गौतम ! चार समुद्घात कहे गये हैं-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणांतिकसमुद्घात और वैक्रियसमुद्घात / ऐसा ही सप्तमपृथ्वी तक के नारकों का कथन करना चाहिए। विवेचन-टीकाकार ने उल्लेख किया है कि यहाँ कई प्रतियों में कई तरह का पाठ है / उन सबका वाचनाभेद भी पूरा पूरा नहीं बताया जा सकता / केवल जो पाठ बहुतसी प्रति गया और जो अविसंवादी है वही लिया गया है। पाठभेद होते हुए भी आशयभेद नहीं है। मूलपाठ में कोष्ठक के अन्तर्गत दिया गया पाठ टीका में नहीं है। प्रस्तुत सूत्र में प्रतिपाद्य विषय पूर्व में स्पष्ट किये जा चुके हैं। लेश्याद्वार में श्री भगवतीसूत्र में कही हुई एक संग्रहणी गाथा इस प्रकार है 'काऊ दोसु तइयाए मीसिया नीलिया चउत्थीए / पंचमियाए मीसा कण्हा तत्तो परमकण्हा // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org