Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 242] [जीवाजीवाभिगमसूत्र अज्ञानद्वार में किन्हीं में दो अज्ञान और किन्हीं में तीन अज्ञान कहे गये हैं, उसका तात्पर्य यह है कि जो असंज्ञी पंचेन्द्रियों से प्राकर उत्पन्न होते हैं उनके अपर्याप्त अवस्था में विभंगज्ञान नहीं होता अतएव दो ही प्रज्ञान सम्भव हैं / शेषकाल में तीनों अज्ञान होते हैं। संज्ञी पंचेन्द्रियों से आकर जो उत्पन्न होते हैं उनके तो अपर्याप्त अवस्था में भी विभंग होता है, अतएव तीनों अज्ञान सदा सम्भव हैं। शर्कराप्रभा आदि आगे की नरकपध्वियों में संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव ही उत्पन्न होते हैं। अतएव पहली रत्नप्रभापृथ्वी को छोड़कर शेष पृथ्वियों में तीनों प्रज्ञान पाये जाते हैं। शेष सब मूलपाठ से ही स्पष्ट है। नारकों की भूख-प्यास 88. [1] इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए. नेरइया केरिसयं खुहस्पिवासं पच्चणुग्मवमाणा विहरंति ? ___ गोयमा! एगमेगस्स णं रयणप्पभापुढविनेरइयस्स असम्भावपट्टवणाए सम्बोदषो वा सम्वपोग्गले वा आसगंसि पक्खिवेज्जा णो चेव गं से रयणप्पमापुढवीए नेरइए सित्ते वा सिया, वितण्हे वा सिया, एरिसिया गं गोयमा ! रयणप्पभाए गैरइया खुहस्पिवासं पच्चणम्भवमाणा विहरंति एवं जाव अहेसत्तमाए। [89] (1) हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक भूख और प्यास को कैसी वेदना का अनुभव करते हैं ? गौतम ! असत्कल्पना के अनुसार यदि किसी एक रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक के मुख में सब समुद्रों का जल तथा सब खाद्यपुद्गलों को डाल दिया जाय तो भी उस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक की भूख तृप्त नहीं हो सकती और न उसकी प्यास ही शान्त हो सकती है / हे गौतम ! ऐसी तीव्र भूखप्यास की वेदना उन रत्नप्रभा नारकियों को होती है। इसी तरह सप्तमपृथ्वी तक के नैरयिकों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए / एक-अनेक-विकुर्वणा 89. [2] इमोसे गं भंते ! रयणप्पमाए पुढवीए नेरइया कि एगत्तं पभू विउवित्तए पुहुत्तं पि पभू विउवित्तए ? ___ गोयमा ! एगत्तं पि पभू पुत्तं पिपभू विउवित्तए। एगत्तं विउव्वेमाणा एगं महं मोग्गरत्वंवा एवं मुसुदि करवत असि सत्ती हल गया मुसल चक्कणाराय कुत तोमर सूल लउउ भिडमाला य जाव भिडमालरूवं वा पुहत्तं विउव्वेमाणा, मोरंगररूवाणि वा जाव भिडमालरूवाणि वा ताई संखेज्जाई गो असंखेज्जाई, संबद्धाइं नो असंबद्धाई, सरिसाई नो असरिसाई विउध्वंति, विउन्धित्ता अण्णमण्णस्स कायं अभिहणमाणा अभिहणमाणा वेयणं उदीरेंति उज्जलं विउलं पगाढं कक्कसं कडुयं फरसं निरं चंडं तिव्वं दुक्खं दुग्गं दुरहियास एवं जाव धूमप्पभाए पुढवीए / छटुसत्तमासु णं पुढवीसु नेरइया बहु Jain'Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org