Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 244] [जीवाजोवाभिगमसूत्र धूमप्पभाए पुच्छा / गोयमा ! सीतं पि वेवणं वेदेति उसिणं पि वेयणं वेयंति णो सीतोसिणं वेयणं वेदेति / ते बहुतरगा जे सीयवेदणं वेदेति, ते थोवयरगा जे उसिणवेयणं वेयंति / तमाए पुच्छा / गोयमा ! सीयं वेयणं वेदेति जो उसिणं वेदणं वेदिति णो सीतोसिणं वेयणं वेति / एवं अहेसत्तभाए गवरं परमसीयं / [86] (3) हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक क्या शीत वेदना वेदते हैं, उष्ण वेदना वेदते हैं या शीतोष्ण वेदना वेदते हैं ? गौतम ! वे शीत वेदना नहीं वेदते हैं, उष्ण वेदना वेदते हैं, शीतोष्ण वेदना नहीं वेदते हैं / इस प्रकार शर्कराप्रभा और बालुकाप्रभा के नैरयिकों के संबंध में भी जानना चाहिए। पंकप्रभा के विषय में प्रश्न करने पर गौतम ! वे शीतवेदना भी वेदते हैं, उष्ण वेदना भी वेदते हैं, शीतोष्ण वेदना नहीं वेदते हैं / वे नैरयिक बहुत हैं जो उष्णवेदना वेदते हैं और वे कम हैं जो शीत वेदना वेदते हैं। धूमप्रभा के विषय में प्रश्न किया तो हे गौतम ! वे सीत वेदना भी वेदते हैं और उष्ण वेदना भी वेदते हैं, शीतोष्ण वेदना नहीं वेदते हैं। वे नारकजीव अधिक हैं जो शीत वेदना वेदते हैं और वे थोड़े हैं जो उष्ण वेदना वेदते हैं। तमः प्रभा के प्रश्न पर हे गौतम ! वे शीत वेदना वेदते हैं, उष्ण वेदना नहीं वेदते हैं और शीतोष्ण वेदना नहीं वेदते हैं। तमस्तमा पृथ्वी की पुच्छा में गौतम ! परमशीत वेदना वेदते हैं उष्ण या शीतोष्ण वेदना नहीं वेदते हैं। 89. [4] इमोसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णेरइया केरिसयं गिरयभवं पच्चणुभवमाणा विहरंति ? गोयमा ! ते णं तत्थ णिच्च भीता णिच्चं तसिया णिच्चं छुहिया णिच्चं उविग्गा निच्चं उपप्पुआ णिच्चं वहिया निच्चं परममसुममउलमणुबद्धं निरयभवं पच्चणुभवमाणा विहरति / एवं जाव अधेसत्तमाए णं पुढवीए पंच अणत्तरा महतिमहालया महागरगा पन्नता, तंजहा-- काले महाकाले रोरुए महारोरुए अप्पतिट्ठाणे / तत्थ इमे पंच महापुरिसा अणुत्तरेहि दंडसमावाणेहि कालमासे कालं किच्चा अप्पइट्ठाणे णरए रइयत्ताए उपवण्णा, संजहा–१ रामे जमदग्गिपुत्ते 2 वढाउ लच्छइपुत्ते 3 वसु उवरिचरे 4 सुभूमे कोरवे 5 बंभदत्ते चुलणिसुए / ते णं तत्थ नेरइया जाया काला कालोमासा जाव परमकिण्हा वण्णेणं पण्णता, तंजहा-ते गं तत्थ वेदणं वेति उज्जलं विउलं जाव दुरहियासं। [89] (4) हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के नरक भव का अनुभव करते हुए विचरते हैं ? 1, "णिचं वहिया' यह पाठ टीका में नहीं है। संपादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org