________________ 248] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पयलाएज्जा वा सई वा रई वा धिई वा मह वा उवलमेज्जा, सोए सीयभूयए संकममाणे संकममाणे सायासोक्खबहुले या वि विहरेज्जा, भवेयारवे सिया? जो इण? सम गोयमा ! उसिणवेवणिज्जेसु णरएसु नेरइया एतो अणिद्वतरियं चेव उसिण वेयणं पच्चणुभवमाणा विहरति / [89] (5) हे भगवन् ! उष्णवेदना वाले नरकों में नारक किस प्रकार की उष्णवेदना का अनुभव करते हैं ? गौतम ! जैसे कोई लुहार का लड़का, जो तरुण (युवा-विशिष्ट अभिनव वर्णादि वाला) हो, बलवान हो, युगवान् (कालादिजन्य उपद्रवों से रहित) हो, रोग रहित हो, जिसके दोनों हाथों का अग्रभाग स्थिर हो, जिसके हाथ, पांव, पसलियां, पीठ और जंघाए सुदृढ और मजबूत हों, जो लांघने में, कूदने में, बेग के साथ चलने में, फांदने में समर्थ हो और जो कठिन वस्तु को भी चूर-चूर कर सकता हो, जो दो ताल वृक्ष जैसे सरल लंबे पुष्ट बाहु वाला हो, जिस के कंधे घने पुष्ट और गोल हों, (व्यायाम के समय) चमडे की बेंत, मुदगर तथा मुट्ठी के आघात से घने और पुष्ट बने हुए अवयवों वाला हो, जो आन्तरिक उत्साह से युक्त हो, जो छेक (बहत्तर कला निपुण), दक्ष (शीघ्रता से काम करने वाला), प्रष्ठ-हितमितभाषी, कुशल (कार्य कुशल), निपुण, बुद्धिमान, निपुणशिल्पयुक्त हो, वह एक छोटे घड़े के समान बड़े लोहे के पिण्ड को लेकर उसे तपा-तपा कर कट कट कर काट-काट कर उसका चूर्ण बनावे, ऐसा एक दिन, दो दिन, तीन दिन यावत् अधिक से अधिक पन्द्रह दिन तक ऐसा ही करता रहे / (चूर्ण का गोला बनाकर उसी क्रम से चूर्णादि करता रहे और गोला बनाता रहे, ऐसा करने से वह मजबूत फौलाद का गोला बन जावेगा) फिर उसे ठंडा करे / उस ठंडे लोहे के गोले को लोहे की संडासी से पकड़ कर असत् कल्पना से उष्णवेदना वाले नरकों में रख दे, इस विचार के साथ कि मैं एक उन्मेष-निमेष में (पलभर में) उसे फिर निकाल लूंगा। परन्तु वह क्षण भर में ही उसे फूटता हुआ देखता है, मक्खन की तरह पिघलता हुआ देखता है, सर्वथा भस्मीभूत होते हुए देखता है। वह लहार का लड़का उस लोहे के गोले की अस्पटित, अगलित और अविध्वस्त रूप में पन: निकाल लेने में समर्थ नहीं होता। (तात्पर्य यह है कि वह फौलाद का गोला वहाँ की उष्णता से क्षणभर में पिघल कर नष्ट हो जाता है , इतनी भीषण वहाँ की उष्णता है।) (दूसरा दृष्टान्त) जैसे कोई मद वाला मातंग हाथी द्विप कुजर जो साठ वर्ष का है प्रथम शरत् काल समय में (आश्विन मास में) अथवा अन्तिम ग्रीष्मकाल समय में (ज्येष्ठ मास में) गरमी से पीड़ित होकर, तृषा से बाधित होकर, दावाग्नि की ज्वालाओं से झुलसता हुआ, पातुर, शुषित, पिपासित, दुर्बल, और क्लान्त बना हुआ एक बड़ी पुष्करिणी (सरोवर) को देखता है, जिसके चार कोने हैं, जो समान किनारे वाली है, जो क्रमशः आगे-आगे गहरी है, जिसका जलस्थान अथाह है, जिसका जल शीतल है, जो कमलपत्र कंद और मृणाल से ढंकी हुई है। जो बहुत से खिले हुए केसरप्रधान उत्पल, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगंधिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र आदि विविध कमल की जातियों से मुक्त है, जिसके कमलों पर भ्रमर रसपान कर रहे हैं, जो स्वच्छ निर्मल जल से भरी हुई है, जिसमें बहुत से मच्छ और कछुए इधर-उधर घूम रहे हों, अनेक पक्षियों के जोड़ों के चहचहाने के शब्दों के कारण से जो मधुर स्वर से सुनिनादित (शब्दायमान) हो रही है, ऐसी पुष्पकरिणी को देखकर वह उसमें प्रवेश करता है, प्रवेश करके अपनी गरमी को शान्त करता है, तुषा को दूर करता है, भूख को मिटाता है, तापजनित ज्वर को नष्ट करता है और दाह को उपशान्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org