________________ तृतीय प्रतिपत्ति : शीतवना का स्वरूप] (249 करता है / इस प्रकार उष्णता आदि के उपशान्त होने पर वह वहाँ निद्रा लेने लगता है, आँखें मूंदने लगता है, उसकी स्मृति, रति (मानन्द), धृति (धैर्य) तथा मति (चित्त की स्वस्थता) लौट आती है, वह इस प्रकार शीतल और शान्त होकर धीरे-धीरे वहां से निकलता-निकलता अत्यन्त साता-सुख का अनुभव करता है। इसी प्रकार हे गौतम ! असत्कल्पना के अनुसार उष्णवेदनीय नरकों से निकल कर कोई नैरयिक जीव इस मनुष्यलोक में जो गुड पकाने की भट्टियां, शराब बनाने की भट्टियां, बकरी की लिण्डियों की अग्निवाली भट्टियां, लोहा गलाने की भट्टियां, ताँबा गलाने की भट्टियां, इसी तरह रांगा सीसा, चांदी, सोना हिरण्य को गलाने की भट्टियां, कुम्भकार के भट्टे की अग्नि, मूस की अग्नि, ईंटें पकाने के भट्टे की अग्नि, कवेलु पकाने के भट्टे की अग्नि, लोहार के भट्टे की अग्नि, इक्षुरस पकाने की चूल की अग्नि, तिल की अग्नि, तुष की अग्नि, नड-बांस की अग्नि आदि जो अग्नि और अग्नि के स्थान हैं, जो तप्त हैं और तपकर अग्नि-तुल्य हो गये हैं, फूले हुए पलास के फूलों की तरह लाललाल हो गये हैं, जिनमें से हजारों चिनगारियां निकल रही हैं, हजारों ज्वालाएँ निकल रही हैं, हजारों अंगारे जहां बिखर रहे हैं और जो अत्यन्त जाज्वल्यमान हैं, जो अन्दर ही अन्दर धू-धू धधकते हैं, ऐसे अग्निस्थानों और अग्नियों को वह नारक जीव देखे और उनमें प्रवेश करे तो वह अपनी उष्णता को नरक की उष्णता को) शान्त करता है, तषा, क्षधा और दाह को दूर करता है और ऐसा होने से वह वहाँ नींद भी लेता है, आँखें भी मूंदता है, स्मृति, रति, धृति और मति (चित्त की स्वस्थता) प्राप्त करता है और ठंडा होकर अत्यन्त शान्ति का अनुभव करता हुआ धीरे-धीरे वहां से निकलता हुप्रा अत्यन्त सुख-साता का अनुभव करता है / भगवान् के ऐसा कहने पर गौतम ने पूछा कि भगवन् ! क्या नारकों की ऐसी उष्णवेदना है ? भगवान् ने कहा-नहीं, यह बात नहीं है। इससे भी अनिष्टतर उष्णवेदना को नारक जीव अनुभव करते हैं / शीतवेदना का स्वरूप 89. [5] सीयवेदणिज्जेसु णं भंते ! गरएसु णेरइया केरिसियं सीयवेयणं पच्चणुम्भवमाणा विहरति ? - गोयमा ! से जहानामए कम्मारदारए सिया तरुणे जुगवं बलवं जाव सिप्पोवगए एगं महं अपिडं दगवारसमाणं गहाय ताविय कोट्टिय कोट्टिय जहन्नेणं एगाहं वा दुआहं वा तियाहं बा उक्कोसेणं मासं हणेज्जा, से गं तं उसिणं उसिणभूतं अयोमएणं संबंसएणं गहाय असम्भावपटुवणाए सीयधेदणिज्जेसु णरएसु पक्खिवेज्जा, तं [उमिसियनिमिसियंतरेणं पुणरवि पच्चुरिस्सामि तिकट्ठ पविरायमेव पासेज्जा, तं चेव णं जाव णो चेव णं संचाएज्जा पुणरवि पच्चुरित्तए / से णं से जहाणामए मत्तमायगे तहेव जाद सोक्खबहुले यावि विहरेमा] एवामेव गोयमा ! असम्भावपट्टवणाए सीयवेवणेहितो णरएहितो नेरइए उव्यट्टिए समाणे जाई इमाई इहं माणुस्सलोए हवंति, संजहा–हिमाणि वा हिमपुंजाणि वा हिमपउलाणि वा हिमपउलपुजाणि वा, तुसाराणि वा, तुसारपुंजाणि वा, हिमकुंडाणि वा हिमकुडपुजाणि वा सोयाणि वा ताई पासइ, पासित्ता ताई ओगाहति, ओगाहित्ता से गं तत्थ सीयंपि पविणेज्जा, तण्हंपि पविणेज्जा खुहंपि प० जरंपि 50 दाहं पि पविणेज्जा निदाएज्ज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org