________________ 226] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पटह (ढोल) जैसे, भेरी जैसे, झल्लरी जैसे, कोई कुस्तुम्बक (वाध-विशेष) जैसे और कोई नाडीघटिका जैसे हैं / इस प्रकार छठी नरक पृथ्वी तक कहना चाहिए। भगवन् ! सातवीं पृथ्वी के नरकावासों का संस्थान कैसा है ? गौतम वे दो प्रकार के हैं--वृत्त (गोल) और त्रिकोण / [2] इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढबीए नरका केवइयं बाहल्लेणं पण्णता? गोयमा ! तिण्णि जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ता, तंजहा–हेट्ठा घणा सहस्सं मझे झुसिरा सहस्सं, उप्पि संकुइया सहस्स; एवं जाव अहेसत्तमाए। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नरका केवइयं आयाम-विक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा–संखेज्जवित्थडा य असंखेज्जवित्थडा य / तत्थ णं जे ते संखेज्जवित्थडा ते णं संखेज्जाइं जोयणसहस्साई आयामविक्खमेणं संखेज्जाइं जोयणसहस्साइं परिक्खेवेणं पण्णत्ता / तत्थ णं जे ते असंखेज्जवित्थडा ते णं असंखेज्जाई जोयणसहस्साइं आयाम-विक्खंभेणं असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं पण्णत्ता, एवं जाव तमाए। अहे सत्तमाए णं भंते ! पुच्छा; गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा–संखेज्जवित्थडे य, प्रसंखेज्जवित्थडा य / तत्थ णं जे ते संखेज्जवित्थडे से गं एक्कं जोयणसहस्सं आयाम-विक्खंमेणं तिन्नि जोयणसहस्साइं सोलस सहस्साई दोनि य सत्तावीसे जोयणसए तिन्नि कोसे य अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलयं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णता; तत्थ णं जे ते असंखेज्जवित्थडा ते गं असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं असंखेज्जाई जाव परिक्खेयेणं पण्णता। [82-2] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों की मोटाई कितनी कही गौतम ! तीन हजार योजन की मोटाई है / वे नीचे एक हजार योजन तक घन हैं, मध्य में एक हजार योजन तक झुषिर (खाली) हैं और ऊपर एक हजार योजन तक संकुचित हैं। इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिए। भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावासों की लम्बाई-चौड़ाई तथा परिक्षेप (परिधि) कितनी है ? __ गौतम ! वे नरकावास दो प्रकार के हैं। यथा--१. संख्यात योजन के विस्तार वाले और 2. असंख्यात योजन के विस्तार वाले। इनमें जो संख्यात योजन विस्तार वाले हैं, उनका आयाम-विष्कंभ संख्यात हजार योजन है और परिधि भी संख्यात हजार योजन की है। उनमें जो असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं, उनका आयाम-विष्कभ असंख्यात हजार योजन और परिधि भी असंख्यात हजार योजन की है। इसी तरह छठी पृथ्वी तक कहना चाहिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org