________________ तृतीय प्रतिपत्ति : उपपात] [231 (खरबादर पृथ्वीकायिक) जीव और पुद्गल च्यवते हैं और उत्पन्न होते हैं, पुराने निकलते हैं और नये आते हैं / द्रव्याथिकनय से वे नरकावास शाश्वत हैं परन्तु वर्णपर्यायों से, गंधपर्यायों से, रसपर्यायों से और स्पर्शपर्यायों से वे प्रशाश्वत हैं / ऐसा अधःसप्तमपृथ्वी तक कहना चाहिए। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में प्रश्न है कि रत्नप्रभादि के नरकावास किमय हैं अर्थात किस वस्तु के बने हुए हैं ? उत्तर में कहा गया है कि वे सर्वथा वज्रमय हैं अर्थात् वज्र से बने हुए हैं। उनमें खरबादर पृथ्वीकाय के जीव और पुद्गल च्यवते हैं और उत्पन्न होते हैं / अर्थात् पहले वाले जीव निकलते हैं और नये जीव आकर उत्पन्न होते हैं / इसी तरह पुद्गल भी कोई च्यवते हैं और कोई नये आकर मिलते हैं / यह आने-जाने की प्रक्रिया वहाँ निरन्तर चलती रहती है / इसके बावजूद भी रत्नप्रभादि नरकों की रचना शाश्वत है। इसलिए द्रव्यनय की अपेक्षा से वे नित्य हैं, सदाकाल से थे, सदाकाल से हैं और सदाकाल रहेंगे / इस प्रकार द्रव्य से शाश्वत होते हुए भी उनमें वर्ण, गंध, रस और स्पर्श बदलते रहते हैं, इस अपेक्षा से बे प्रशाश्वत हैं। जैनसिद्वान्त विविध अपेक्षानों से वस्त में मानता है / इनमें कोई विरोध नहीं है। अपेक्षाभेद से शाश्वत और अशाश्वत मानने में कोई विरोध नहीं है / स्याद्वाद सर्वथा सुसंगत सिद्धान्त है। उपपात 86. [1] इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढबीए नेरइया कओहितो उववज्जति ? कि असण्णोहितो उववज्जंति, सरीसिवेहितो उववज्जंति पक्खोहितो उववज्जति चउप्परहितो उवयजति उरगेहितो उववज्जति इस्थियाहिंतो उववज्जति मच्छमणुएहितो उववज्जति ? गोयमा ! असणीहितो उववज्जति जाव मच्छमणुएहितो वि उववज्जंति,' असण्णी खलु पढमं दोच्चं च सरीसिवा ततिय पक्खी। सोहा जंति चउत्थि उरगा पुण पंचमि जंति // 1 // छट्टि च इस्थियाओ मच्छा मणुया य सतमि जंति / जाव अहेससमाए पुढवीए नेरइया णो असण्णीहितो उववज्जंति जाव णो इत्थियाहितो उववजंति, मच्छमणुस्सेहितो उववज्जति / / [86] (1) भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या असंज्ञी जीवों से आकर उत्पन्न होते हैं, सरीसृपों से पाकर उत्पन्न होते हैं, पक्षियों से आकर उत्पन्न होते हैं, चौपदों से आकर उत्पन्न होते हैं. (सर्पादि) उरगों से आकर उत्पन्न होते हैं, स्त्रियों से आकर उत्पन्न होते हैं या मत्स्यों और मनुष्यों से पाकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! प्रसंज्ञी जीवों से पाकर भी उत्पन्न होते हैं और यावत् मत्स्य और मनुष्यों से आकर भी उत्पन्न होते हैं / (यहाँ यह गाथा अनुसरणीय है) ___ असंज्ञी जीव प्रथम नरक तक, सरीसृप दूसरी नरक तक, पक्षी तीसरी नरक तक, सिंह चौथी 1. सेसासु इमाए गाहाए प्रण गंतव्वा, एवं एतेणं अभिलावेणं इमा गाथा घोसेयन्वा / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org