________________ 220 [जीवाजीवाभिगमसूत्र हे भगवन् ! (जैसा आपने कहा) वह वैसा ही है, वह वैसा ही है / इस प्रकार प्रथम नैरयिक उद्देशक पूर्ण हुआ। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में नरकपृथ्वियों के बाहल्य और विस्तार को लेकर आपेक्षिक तुल्यता, विशेषाधिकता या विशेषहीनता अथवा संख्यातगुणविशेषाधिकता या संख्यातगुणहीनता को लेकर प्रश्न किये गये हैं / यहाँ यह शंका हो सकती है कि पूर्वसूत्रों में नरकपृथ्वियों का बाहल्य बता दिया गया है, उससे अपने आप यह बात ज्ञात हो जाती है तो फिर इन प्रश्नों की क्या उपयोगिता है ? यह शंका यथार्थ है परन्तु समाधान यह है-यह प्रश्न स्वयं जानते हुए भी दूसरे मंदमतियों की अज्ञाननिवृत्ति हेतु और उन्हें समझाने हेतु किया गया है। प्रश्न दो प्रकार के हैं—एक ज्ञ-प्रश्न और दूसरा अज्ञ-प्रश्न / स्वयं जानते हुए भी जो दूसरों को समझाने की दृष्टि से प्रश्न किया जाय वह ज्ञ-प्रश्न है और जो अपनी जिज्ञासा के लिए किया जाता है वह प्रज्ञ-प्रश्न है / ऊपर जो प्रश्न किया गया है वह ज्ञ- प्रश्न है जो मंदमतियों के लिए किया गया है। यह कैसे कहा जा सकता है कि यह ज्ञ-प्रश्न है ? क्योंकि इसके आगे जो प्रश्न किया गया है वह स्व-अवबोध के लिए है। सूत्र में प्रश्न किया गया है कि दूसरी नरकपृथ्वी की अपेक्षा यह रत्नप्रभापृथ्वी मोटाई में तुल्य है, विशेषाधिक है या संख्येयगुण है ? उत्तर में कहा गया है तुल्य नहीं है, विशेषाधिक है किन्तु संख्येयगुण नहीं हैं। क्योंकि रत्नप्रभा की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन की है और दूसरी शर्करापृथ्वी की मोटाई एक लाख बत्तीस हजार योजन है। दोनों में अड़तालीस हजार योजन का अन्तर है / इतना ही अन्तर होने के कारण विशेषाधिकता ही घटती है तुल्यता और संख्येयगुणता घटित नहीं होती। सब पृथ्वियों की मोटाई यहाँ उद्धृत कर देते हैं ताकि स्वयमेव यह प्रतीत हो जावेगा कि दूसरी पृथ्वी की अपेक्षा प्रथम पृथ्वी बाहल्य में विशेषाधिक है और तीसरी की अपेक्षा दूसरी विशेषाधिक है तथा चौथी की अपेक्षा तीसरी विशेषाधिक है, इसी तरह सातवीं की अपेक्षा छठी पृथ्वी मोटाई में विशेषाधिक है / सब पृथ्वियों की मोटाई इस प्रकार है प्रथम पृथ्वी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन की है। दूसरी पृथ्वी की मोटाई एक लाख बत्तीस हजार योजन की है / तीसरी पृथ्वी की एक लाख अट्ठाईस हजार योजन की है। चौथी पृथ्वी की एक लाख बीस हजार योजन की है। पांचवीं पृथ्वी की एक लाख अठारह हजार योजन की है। छठी पृथ्वी की मोटाई एक लाख सोलह हजार योजन की है। सातवीं पृथ्वी को मोटाई एक लाख आठ हजार योजन की है। अतएव बाहल्य की अपेक्षा से पूर्व-पूर्व की पृथ्वी अपनी पिछली पृथ्वी की अपेक्षा विशेषाधिक ही है, तुल्य या संख्येयगुण नहीं। विस्तार की अपेक्षा पिछली-पिछली पृथ्वी की अपेक्षा पूर्व-पूर्व की पृथ्वी विशेषहीन है, तुल्य या संख्येयगुणहीन नहीं। रत्नप्रभा में प्रदेशादि की वृद्धि से प्रवर्धमान होने पर उतने ही क्षेत्र में शर्कराप्रभादि में भी वृद्धि होती है, अतएव विशेषहीनता ही घटित होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org