________________ 200] [नोवाजीवाभिगमसूत्र (5) पांचवीं धूमप्रभा में 5 प्रस्तर हैं। पहले प्रस्तर में एक-एक दिशा में नौ-नौ प्रावलिकाप्रविष्ट विमान हैं और विदिशाओं में आठ-पाठ हैं। मध्य में एक नरकेन्द्रक है। सब मिलाकर 69 श्रावलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। शेष चार प्रस्तरों में पूर्ववत् पाठ-पाठ की हानि है / अतः सब मिलाकर 265 प्रावलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। शेष 299735 (दो लाख निन्यानवै हजार सात सो पैतीस) पुष्पावकीर्णक नरकावास हैं / दोनों मिलकर तीन लाख नरकावास पांचवीं पृथ्वी में हैं / (6) छठी तमःप्रभा में तीन प्रस्तर हैं। प्रथम प्रस्तर की प्रत्येक दिशा में चार-चार और प्रत्येक विदिशा में 3-3, मध्य में एक नरकेन्द्रक सब मिलाकर 29 प्रावलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। दो प्रस्तरों में क्रम से पाठ-आठ की हानि है। अतः सब मिलाकर 63 प्रावलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं / शेष 99932 (निन्यानवे हजार नौ सौ बत्तीस) पुष्पावकीर्णक हैं। दोनों मिलाकर छठी पृथ्वी में 99995 नरकावास हैं / (7) सातवीं पृथ्वी में केवल पांच नरकावास हैं / काल, महाकाल, रौरव, महारोरव और अप्रतिष्ठान उनके नाम हैं 1 अप्रतिष्ठान नामक नरकावास मध्य में है और उसके पूर्व में काल नरकावास, पश्चिम में महाकाल, दक्षिण में रौरव और उत्तर में महारौरव नरकावास है। पृथ्वी का नाम प्राबलिकाप्रविष्ट नरकावास पष्पावकीर्णक नरकावास कुल नरकावास रत्नप्रभा 2995567 3000000 शर्कराप्रभा 2695 2497305 2500000 बालुकाप्रभा 1485 1498515 1500000 पंकप्रभा 707 999263 1000000 धूमप्रभा 265 299735 300000 तमःप्रभा 63 99995 99932 4 चारों दिशाओं में तमस्तमःप्रभा 1 मध्य में 1. सत्तसया पणतीसा नवनवइसहस्स दो य लक्खा य / धूमाए सेढिगया पणसठ्ठा दो सया होति / / 2. नवनउई य सहस्सा नव चेव सया हवंति बत्तीसा। पुढवीए छट्ठीए पइण्णगाणेस संखेवो / 3. पुव्वेण होइ कालो अवरेण अप्पइट्र महकालो। रोरु दाहिणपासे उत्तरपासे महारोरू / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org