Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 198] [जीवाजीवाभिगमसूत्र विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों के प्रकार (विभाग) की पृच्छा है। उत्तर में कहा गया है कि रत्नप्रभापृथ्वी के तीन प्रकार (विभाग) हैं, यथा -खरकांड, पंकबहुलकांड और अपबहुलकाण्ड। काण्ड का अर्थ है -विशिष्ट भूभाग / खर का अर्थ है कठिन / रत्नप्रभापृथ्वी का प्रथम खरकाण्ड 16 विभाग वाला है / रत्न काण्ड नामक प्रथम विभाग, वज्रकाण्ड नामक द्वितीय विभाग, वैडर्यकाण्ड नामक ततीय विभाग, इस प्रकार रिष्टरत्नकाण्ड नामक सोलहवां विभाग है। सोलह रत्नों के नाम के अनुसार रत्नप्रभा के खरकाण्ड के सोलह विभाग हैं / प्रत्येक काण्ड एक हजार योजन की मोटाई वाला है / इस प्रकार खरकाण्ड सोलह हजार योजन की मोटाई वाला है। उक्त रत्नकाण्ड से लगाकर रिष्टकाण्ड पर्यन्त सब काण्ड एक ही प्रकार के हैं, अर्थात् इनमें फिर विभाग नहीं है। दूसरा काण्ड पंकबहुल है / इसमें कीचड़ की अधिकता है और इसका और विभाग न होने से यह एक प्रकार का ही है। यह दूसरा काण्ड 84 हजार योजन की मोटाई वाला है / तीसरे अप्बहुलकाण्ड में जल की प्रचुरता है और इसका कोई विभाग नहीं है, एक ही प्रकार का है। यह 80 हजार योजन की मोटाई वाला है / इस प्रकार रत्नप्रभा के तीनों काण्डों को मिलाने से रत्नप्रभा की कुल मोटाई (16+84+80) एक लाख अस्सी हजार हो जाती है। दूसरी नरकपृथ्वी शर्कराप्रभा से लेकर अधःसप्तमपृथ्वी तक की नरकभूमियों के कोई विभाग नहीं हैं / सब एक ही आकार वाली हैं / नरकावासों की संख्या 70. इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए केवइया निरयावाससयसहस्सा पण्णता? गोयमा ! तीसं णिरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता, एवं एएणं अभिलावणं सम्बासि पुच्छा, इमा गाहा अणुगंतव्वा तीसा य पण्णवीसा पण्णरस दसेव तिणि य हवंति। पंचूण सयसहस्सं पंचैव अणुत्तरा गरगा // 1 // जाव अहेसत्तमाए पंच अणुत्तरा महतिमहालया महाणरगा पण्णत्ता, तंजहा-काले, महाकाले, रोरुए, महारोरुए, अपइट्ठाणे / [70] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में कितने लाख नरकावास कहे गये हैं ? गौतम ! तीस लाख नरकावास कहे गये हैं। इस गाथा के अनुसार सातों नरकों में नरकावासों को संख्या जाननी चाहिए / प्रथम पृथ्वी में तीस लाख, दूसरी में पच्चीस लाख, तीसरी में पन्द्रह लाख, चौथी में दस लाख, पांचवीं में तीन लाख, छठी में पांच कम एक लाख और सातवीं पृथ्वी में पांच अनुत्तर महान रकावास हैं। अधःसप्तमपृथ्वी में जो बहुत बड़े अनुत्तर महान रकावास कहे गये हैं, वे पांच हैं, यथा--- 1. काल, 2. महाकाल, 3. रौरव, 4. महारौरव और 5. अप्रतिष्ठान / विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में प्रत्येक नरकापृथ्वी में नारकावासों की संख्या बताई गई है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org