________________ 192] [जीवाजीवाभिगमसूत्र अल्पबहुत्व की व्याख्या मूलार्थ से ही स्पष्ट है और पूर्व में अलग-अलग प्रसंगों में सब प्रकार के जीवों का प्रमाण और उसकी समझाइश हेतुपूर्वक दे दी गई है, अतएव यहाँ पुनः उसे दोहराना अनावश्यक ही है। समुदाय रूप में स्त्री-पुरुष-नपुसकों की स्थिति 63. इत्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा ! एगेणं आएसेणं जहा पुचि माणियं, एवं पुरिसस्स वि नपुसकस्स वि। संचिढणा पुनरवि तिण्हंपि जहा पुग्वि भाणिया, अंतरं पि तिण्हं पि जहा पुग्वि माणियं तहा नेयव्वं / [63] भगवन् ! स्त्रियों की कितने काल की स्थिति कही गई है ? गौतम ! 'एक अपेक्षा से' इत्यादि कथन जो स्त्री-प्रकरण में किया गया है, वही यहाँ कहना चाहिए / इसी प्रकार पुरुष और नपुसक की भी स्थिति आदि का कथन पूर्ववत् समझना चाहिए / तीनों की संचिट्ठणा (कायस्थिति) और तीनों का अन्तर भी जो अपने-अपने प्रकरण में कहा गया है, वही यहाँ (समुदाय रूप से) कहना चाहिए। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में स्त्री, पुरुष और नपुसकों को लेकर जो कालस्थिति (भवस्थिति), संचिट्टणा (कायस्थिति) और अन्तर आदि का पूर्व में पृथक-पृथक प्रकरण में वर्णन किया गया है, उसी का समुदायरूप में संकलन है। जो कथन पहले अलग-अलग प्रकरणों में किया गया है, उसका यहां समुदाय रूप से कथन अभिप्रेत होने से पुनरुक्ति दोष का प्रसंग नहीं है। वृत्तिकार ने यहां वह पाठ माना है जो अल्पबहुत्व सम्बन्धी पूर्ववर्ती सूत्र के प्रथम अल्पबहुत्व के रूप में दिया गया है / वह इस प्रकार है-'एयासिं णं भंते इत्थीणं पुरिसाणं नपुसकाण य कयरे कयरेहिन्तो अप्पा वा 4 ? सब्वथोवा पुरिसा, इत्थीयो संखेज्जगुणामो, नपुसका अणंतगुणा।' उक्त अल्पबहुत्व में समुदायरूप स्त्री-पुरुष एवं नपुसकों का कथन होने से वृत्तिकार ने इसे सामुदायिक प्रकरण में लिया है। सामुदायिक स्थिति, संचिट्ठणा और अन्तर के साथ ही सामुदायिक अल्पबहुत्व होने से यहाँ यह पाठ विशेष संगत होता है। लेकिन अल्पबहुत्व के साधर्म्य से पाठ अल्पबहुत्वों के साथ उसे प्रथम अल्पबहुत्व के रूप में पूर्वसूत्र में दे दिया है। इस प्रकार केवल स्थानभेद हैं--प्राशय भेद नहीं है। स्त्रियों की पुरुषों से अधिकता 64. तिरिक्खजोणित्थियाओ तिरिक्खजोणियपुरिसे हितो तिगुणानो तिरूवाषियाओ, मस्सित्थियाओ मणुस्सपुरिसेहितो सत्तावीसइगुणाओ सत्तावोसइरूवाहियानो देविस्थियाओ देवपुरिसेहितो बत्तीसइगुणाओ बत्तीसइरूवाहियानो। से तं तिविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। तिविहेसु होइ मेयो, ठिई य संचिढणंतरप्पबहुं / वेवाण य बंधठिई वेओ तह किंपगारो उ // 1 // से तं तिविहा संसारसमापन्नगा जीवा पण्णत्ता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org