________________ 180] [जीवानीवाभिगमसूत्र (5) मिश्रित अल्पबहुत्व सबसे थोड़े अधःसप्तमपृथ्वी नैरयिक नपुसक, उनसे छठी, पांचवीं, चौथी, तीसरी, दूसरी पृथ्वी के नैरयिक नपुसक यथोत्तर असंख्येयगुण, उनसे अन्तर्वीपिक म. नपुसक असंख्येयगुण (संमूछिम मनुष्य की अपेक्षा), उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु अकर्मभूमि के म. नपुसक संख्येयगुण, उनसे हरिवर्ष-रम्यकवर्ष अकर्मभूमि के म. न. संख्येयगुण, उनसे हैमवत-हैरण्यवत अकर्मभूमिक म. नपु. संख्येयगुण, उनसे भरत-एरवत कर्मभूमिक मनुष्य नपु. संख्येयगुण, उनसे पूर्व विदेह-पश्चिमविदेह कर्म. म. नपु. संख्येयगुण हैं और स्वस्थान में परस्पर तुल्य हैं, उनसे रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्येयगुण हैं, उनसे खेचर पंचे. तिर्यक्योनिक नपुसक असंख्येयगुण हैं, उनसे स्थलचर पंचे. ति. यो. नपुसक संख्येयगुण हैं, उनसे जलचर पंचे. ति. यो. नपुसक संख्येयगुण हैं, उनसे चतरिन्द्रिय. श्रीन्द्रिय.दीन्द्रिय ति. यो. नपसक विशेषाधिक हैं, उनसे तेजस्कायिक एके. ति. यो. नपु. असंख्येयगुण हैं, उनसे पृथ्वी, अप, वायुकायिक एके. ति. यो. नपुसक यथोत्तर विशेषाधिक हैं, उनसे वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुसक अनन्तगुण हैं। युक्ति सर्वत्र पूर्ववत् जाननी चाहिए / नपुंसकवेद की बंधस्थिति और प्रकार 61. णपुसकवेवस्स णं भंते ! कम्मस्स केवइयं कालं बंधठिई पण्णता? गोयमा ! जहन्नेणं सागरोवमस्स दोणि सत्तभागा, पलिओवमस्स असंखेज्जहभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं बीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, दोणि य वाससहस्साई अबाधा, अवाहूणिया कम्मठिई कम्मणिसेगो। णपुंसक वेदे गं भंते ! किंपगारे पण्णत्ते ? गोयमा ! महाणगरदाहसमाणे पण्णत्ते समणाउसो ! से तं गपुंसका। [61] हे भगवन् ! नपुसकवेद कर्म की कितने काल की स्थिति कही है ? गौतम ! जघन्य से सागरोपम के 3 (दो सातिया भाग) भाग में पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम सौर उत्कृष्ट से बीस कोडाकोडी सागरोपम की बंधस्थिति कही गई है। दो हजार वर्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org