Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : नवविध अल्पबहुत्व] [181 का अबाधाकाल है / अबाधाकाल से हीन स्थिति का कर्मनिषेक है अर्थात् अनुभवयोग्य कर्मदलिक की रचना है। भगवन् ! नपुसक वेद किस प्रकार का है ? हे प्रायुष्मान् श्रमण गौतम ! महानगर के दाह के समान (सब अवस्थाओं में धधकती कामाग्नि के समान) कहा गया है। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में नपुंसकवेद की बंधस्थिति कही गई है। स्थिति दो प्रकार की होती है-१. बंधस्थिति और 2. अनुभवयोग्य (उदयावलिका में आने योग्य) स्थिति / नपुसकवेद की बंधस्थिति जघन्य से पल्योपम के असंख्यातवें भाग से न्यून एक सागरोपम का 3 भाग प्रमाण है। उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है। यहाँ जघन्यस्थिति प्राप्त करने की जो विधि पूर्व में कही है, वह ध्यान में रखनी चाहिए / वह इस प्रकार है कि जिस प्रकृति की जो उत्कृष्ट स्थिति है, इसमें मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागरोपम का भाग देने पर जो राशि प्राप्त होती है, उसमें पल्योफ्म का असंख्यातवां भाग कम करने पर उस प्रक्रति की स्थिति प्राप्त होती है। यहाँ नपुसकवेद की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है, उसमें सत्तर कोडाकोडी का भाग देने पर (शून्यं शून्येन पातयेत्-शून्य को शून्य से काटने पर) सागरोपम लब्धांक होता है। इसमें पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम करने पर नपुसकवेद की जघन्य स्थिति प्राप्त होती है। नपुसकवेद का अबाधाकाल दो हजार वर्ष का है। अबाधाकाल प्राप्त करने का नियम यह है कि जिस कर्मप्रकति की उत्कृष्टस्थिति जितने कोडाकोडी सागरोपम की है.. उतने सौ वर्ष की उसकी अबाधा होती है। बीस कोडाकोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाले नपुसकवेद की अबाधा बीस सौ वर्ष अर्थात् दो हजार वर्ष की हुई। बंधस्थिति में से अबाधा कम करने पर जो स्थिति बनती है वही जीव को अपना फल देती है अर्थात् उदय में पाती है। इसलिए अबाधाकाल से हीन शेष स्थिति का कर्मनिषेक होता है अर्थात् अनुभवयोग्य कर्मदलिकों की रचना होती है--कर्मदलिक उदय में आने लगते हैं। नपुसकवेद की बंधस्थिति सम्बन्धी प्रश्न के पश्चात् गौतम स्वामी ने नपुसकवेद का वेदन किस प्रकार का होता है, यह प्रश्न पूछा। इसके उत्तर में प्रभु ने फरमाया कि हे आयुष्मान् श्रमण गौतम ! नपुंसकवेद का वेदन महानगर के दाह के समान होता है। जैसे किसी महानगर में फैली हुई आग की ज्वालाएँ चिरकाल तक धधकती रहती हैं तथा उत्कट होती हैं, उसी प्रकार नपुसक की कामाग्नि चिरकाल तक धधकती रहती है और अतितीव्र होती है / वह आदि, मध्य और अन्त तक सब अवस्थाओं में उत्कट बनी रहती है / इस प्रकार नपुसक सम्बन्धी प्रकरण पूरा हुआ। नवविध अल्पबहुत्व ___62. [1] एतेसि णं भंते ! इत्थीणं पुरिसाणं नपुसकाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा, बहुया वा, तल्ला वा, विसेसाहिया वा ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org