Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : कास्थिति (नपुसकों की संचिट्ठणा)] [169 गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुश्वकोडिपुत्तं / एवं जलयरतिरिक्स चउप्पद पलयर उरगपरिसप्प भुयगपरिसप्प महोरगाण वि / मणुस्स णपुंसकस्स गं भंते ! * ? गोयमा ! खेत्तं पडच्च जहन्नेण अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडिपुहत्तं / पम्मचरणं पाच महन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेण देसूणा पुवकोडी। एवं कम्ममूमग भरहेरवय-पुत्वविदेह-अवरविदेहेसु वि भाणियव्वं / अकम्मभूमक मणुस्स णपुसए णं भंते !* ? गोयमा ! जम्मणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहृत्तं, उक्कोसेण मुहुत्तपुहत्तं / साहरणं पडच्च जहन्नेणं अंसोमुहूत्तं, उक्कोसेणं वेसूणा पुटवकोडी।। एवं सम्वेसि जाव अंतरदीवगाणं / [59] (2) भगवन् ! नपुंसक, नपुंसक के रूप में निरन्तर कितने काल तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल तक रह सकता है। भंते ! नै रयिक नपुंसक के विषय में पृच्छा ? गौतम ! जघन्य से दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट से तेतीस सागरोपम तक / इस प्रकार सब नारकपृथ्वियों की स्थिति कहनी चाहिए / भंते ! तिर्यक्योनिक नपुंसक के विषय में पृच्छा? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल, इस प्रकार एकेन्द्रिय नपुंसक और वनस्पतिकायिक नपुंसक के विषय में जानना चाहिए। शेष पृथ्वीकाय आदि जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्यातकाल तक रह सकते हैं / इस असंख्यातकाल में असंख्येय उत्सपिणियां और अवसपिणियां (काल की अपेक्षा) बीत जाती हैं और क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात लोक के आकाश प्रदेशों का अपहार हो सकता है / द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय नपुंसक जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से संख्यातकाल तक रह सकते हैं। भंते ! पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक के लिए पृच्छा ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व पर्यन्त रह सकते हैं। इसी प्रकार जलचर तिर्यक्योनिक, चतुष्पद स्थलचर उरपरिसर्प, भुजपरिसर्प और महोरग नपुंसकों के विषय में भी समझना चाहिए / भगवन् ! मनुष्य नपुंसक के विषय में पृच्छा ? __ गौतम ! क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व / धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि / इसी प्रकार कर्मभूमि के भरत-ऐरवत, पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह नपुंसकों के विषय में भी कहना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org