________________ द्वितीय प्रतिपसि : अन्तर] [173 अन्तर बताया गया है / अर्थात् नपुंसक, नपुसकपर्याय को छोड़ने पर पुनः कितने काल के पश्चात् नपुसक होता है। सामान्यत: नपुसक का अन्तर बताते हुए भगवान् कहते हैं कि गौतम ! जघन्य से अन्तमुहूर्त और उत्कर्ष से कुछ अधिक सागरोपमशतपृथक्त्व का अन्तर होता है। क्योंकि व्यवधान रूप पुरुषत्व और स्त्रीत्व का कालमान इतना ही होता है। जैसा कि संग्रहणीगाथाओं में कहा है--स्त्री और नपुंसक की संचिटणा (कायस्थिति) और पुरुष का अन्तर जघन्य से एक समय है तथा पुरुष को संचिट्ठणा और नपुंसक का अंतर उत्कर्ष से सागरपृथक्त्व-(पदैकदेशे पदसमुदायोपचार से) सागरोपमशतपृथक्त्व है।' सामान्य विवक्षा में नैरयिक नपुसक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सप्तमनारकपृथ्वी से निकलकर तन्दुलमत्स्यादि भव में अन्तर्मुहूर्त तक रहकर पुनः सप्समपृथ्वीनरक में जाने की अपेक्षा से अन्तर्मुहूर्त कहा गया है / उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल है। यह नरकभव से निकलकर परम्परा से निगोद में अनन्तकाल रहने की अपेक्षा से समझना चाहिए / इसी प्रकार सातों नरकपृथ्वी के नपुंसकों का अन्तर समझ लेना चाहिए। सामान्य विवक्षा में तिर्यकयोनि नपुसक का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से सागरोपमशतपृथक्त्व है। पूर्ववत् स्पष्टीकरण जानना चाहिए। विशेष विवक्षा में सामान्यतः एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुसक का अन्तर जघन्य से अन्तमुहूर्त (क्योंकि द्वीन्द्रियादिकाल का व्यवधान इतना ही है) और उत्कर्ष से संख्येय वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम है, क्योंकि व्यवधान रूप त्रसकाय की इतनी ही कालस्थिति है / इतने व्यवधान के बाद पुनः एकेन्द्रिय होता ही है। पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय नपुंसक का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है / इसी तरह अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक एकेन्द्रिय नपुंसकों का भी अन्तर कहना चाहिए। वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय नपुसकों का जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येय काल है। यह असंख्येय काल, काल से असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप होता है और क्षेत्र से असंख्येय लोक प्रमाण होता है। इसका तात्पर्य यह है कि असंख्येय लोकाकाश के प्रदेशों का प्रतिसमय एक एक प्रदेश का अपहार करने पर जितने समय में उन प्रदेशों का सम्पूर्ण अपहार हो जाय, उतने काल को अर्थात् उतनी उत्सपिणियों और अवसपिणियों का वह असंख्येय काल होता है / वनस्पतिभव से छूटने पर अन्यत्र उत्कृष्ट से इतने काल तक जीव रह सकता है / इसके अनन्तर संसारी जीव नियम से पुन वनस्पतिकायिक में उत्पन्न होता है / द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुसकों का अन्तर जलचर, स्थलचर, खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुसकों का अन्तर और सामान्यतः मनुष्य नपुंसक का अन्तर 1. इत्यिनपुंसा संचिट्ठणेसु पुरिसंतरे य समयो उ / पुरिसनपुंसा संचिट्ठणंतरे सागरपुहुत्तं / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org