________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : अन्तरद्वार] [153 पूर्व विदेह-पश्चिमविदेह कर्मभूमिक मनुष्यपुरुष उसी रूप में निरन्तर क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व तक रह सकता है। वह बार बार वहीं सात बार उत्पत्ति की अपेक्षा से समझना चाहिए। इसके बाद अवश्य गति और योनि का परिवर्तन होता ही है / धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि / / अकर्मभूमिक मनुष्य पुरुष तद्भाव को छोड़े बिना निरन्तर जन्म की अपेक्षा से पल्योपमासंख्येयभाग क और उत्कर्ष से तीन पल्योपम तक रह सकता है। संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त (यह अन्तर्मुहुर्त आयु शेष रहने पर अकर्मभूमि में संहरण की अपेक्षा से है।) है और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम तक / यह देशोन पूर्वकोटि आयु वाले पुरुष का उत्तरकुरु आदि में संहरण हो और वह वहीं मर कर वहीं उत्पन्न हो, इस अपेक्षा से है। देशोनता गर्भकाल की अपेक्षा से है। गर्भस्थित के संहरण का प्रतिषेध है। हैमवत-हैरण्यवत अकर्मभूमिक मनुष्य पुरुष जन्म की अपेक्षा जघन्य से पल्योपमासंख्येयभाग न्यून एक पल्योपम तक और उत्कर्ष से परिपूर्ण पल्योपम तक उसी रूप में रह सकता है / संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि अधिक एक पल्योपम रह सकता है / हरिवर्ष-रम्यकवर्ष अकर्मभूमिक मनुष्य-पुरुष जन्म की अपेक्षा जघन्य पल्योपमासंख्येय भाग न्यून दो पल्योपम तक और उत्कर्ष से परिपूर्ण दो पल्योपम तक। जघन्य और उत्कर्ष से वहाँ इतनी ही आयु सम्भव है। संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहर्त (क्योंकि अन्तर्मुहुर्त से कम आयु वाले पुरुष का संहरण नहीं होता) और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि अधिक दो पल्योपम तक तद्रूप में रह सकता है। देवकुरु-उत्तरकुरु अकर्मभूमिक मनुष्य-पुरुष क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से पल्योपमासंख्येय भाग न्यून तीन पल्योपम और उत्कर्ष से परिपूर्ण तीन पल्योपम तक उसी रूप में रह सकता है / संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्महर्त और उत्कर्ष से देशोनपूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम तक उसी रूप में रह सकता है। __ अन्तर्वीपक मनुष्य-पुरुष जन्म की अपेक्षा देशोन पल्योपम का असंख्येय भाग तक और उत्कर्ष से परिपूर्ण पल्योपम का प्रसंख्येय भाग तक रह सकता है। संहरण की अपेक्षाजघन्य से अन्तर्महर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिअधिक पल्योपमासंख्येय भाग तक उसी पुरुषपर्याय में रह सकता है। देवपुरुषों की जो स्थिति पहले बताई गई है, वही उनकी संचिठ्ठणा (कायस्थिति) भी है। शंका की जा सकती है कि अनेक भव-भावों की अपेक्षा से कायस्थिति होती है वह एक ही भव में कैसे हो सकती है ? यह दोष नहीं है क्योंकि यहाँ केवल उतनी ही विवक्षा है कि देवपुरुष देव पुरुषत्व को छोड़े बिना कितने काल तक रह सकता है। देव मर कर अनन्तर भव में देव नहीं होता अतः यह अतिदेश किया गया है कि जो देवों की भवस्थिति है वही उनकी संचिट्ठणा है। अन्तरद्वार 55. पुरिसस्स णं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेण वणस्सइकालो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org