________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: पुरुष का पुरुषरूप में निरन्तर रहने का काल] [151 मणुस्सपुरिसाणं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा ! खेत्तं पडुच्च जहन्नेणं अंतीमुहत्तं, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं पुश्वकोडिपुहुत्तमम्भहियाइं; धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुब्धकोडी। एवं सन्वत्थ जाव पुश्वविदेह-अवरविवह कम्मभूमिग मणुस्सयुरिसाणं। अकम्मभूमग मणुस्सपुरिसाणं जहा अकम्मभूमग मणुस्सित्थीणं जाव अंतरदीवगाणं / देवाणं जच्चेव ठिई सच्चेव संचिटणा जाव सम्वत्थसिद्धगाणं / [54] हे भगवन् ! पुरुष, पुरुषरूप में निरन्तर कितने काल तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट से सागरोपम शतपृथक्त्व (दो सौ से लेकर नौ सौ सागरोपम) से कुछ अधिक काल तक पुरुष पुरुषरूप में निरन्तर रह सकता है। भगवन् ! तिर्यंचयोनि-पुरुष काल से कितने समय तक निरन्तर उसी रूप में रह सकता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक / इस प्रकार से जैसे स्त्रियों की संचिढणा कही, वैसे खेचर तिर्यंचयोनिपुरुष पर्यन्त की संचिट्ठणा है। भगवन् ! मनुष्यपुरुष उसी रूप में काल से कितने समय तक रह सकता है ? गौतम ! क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक / धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि / इसी प्रकार सर्वत्र पूर्व विदेह, पश्चिमविदेह कर्मभूमिक मनुष्य-पुरुषों तक के लिए कहना चाहिए। अकर्मभूमिक मनुष्यपुरुषों के लिए वैसा ही कहना जैसा अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियों के लिए कहा है / इसी प्रकार अन्तरद्वीपों के प्रकर्मभूमिक मनुष्यपुरुषों तक वक्तव्यता जानना चाहिए / देवपुरुषों की जो स्थिति कही है, वही उसका संचिट्ठणा काल है / ऐसा ही कथन सर्वार्थ सिद्ध के देवपुरुषों तक कहना चाहिए / विवेचन–पुरुष पुरुषपर्याय का त्याग किये बिना कितने काल तक निरन्तर पुरुषरूप में रह सकता है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान ने कहा कि जघन्य से अन्तर्महुर्त तक और उत्कर्ष से दो सौ सागरोपम से लेकर नौ सौ सागरोपम से कुछ अधिक काल तक पुरुष पुरुष-पर्याय में रह सकता है / जो पुरुष अन्तर्मुहर्त काल जी कर मरने के बाद स्त्री आदि रूप में जन्म लेता है उसकी अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त कहा गया है। सामान्य रूप से तिर्यक, नर और देव भवों में इतने काल तक पुरुषरूप में रहने की सम्भावना है। मनुष्य के भवों की अपेक्षा से सातिरेकता (कुछ अधिकता) समझना चाहिए। इससे अधिक काल तक निरन्तर पुरुष नामकर्म का उदय नहीं रह सकता / नियमतः वह स्त्री आदि भाव को प्राप्त करता है। तिर्यक्योनि पुरुषों के विषय में वही वक्तव्यता है, जो तिर्यक्योनि स्त्रियों के विषय में कही गई है / वह इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org