Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 162] [जीवाजीवाभिगमसूत्र उनसे स्थलचर संख्येय गुण, उनसे जलचर संख्येय गुण, उनसे वानव्यन्तर देव संख्येय गुण हैं। क्योंकि वानव्यन्तर देव एक प्रतर में संख्येय योजन कोटि प्रमाण एक प्रादेशिक श्रेणी के बराबर जितने खण्ड होते हैं, उनके बत्तीसवें भाग प्रमाण हैं / उनसे ज्योतिष्क देव संख्यात गुण हैं / युक्ति पहले कही जा चुकी है। पुरुषवेद की स्थिति 57. पुरिसवेवस्स णं भंते / केवइयं कालं बंधट्टिई पण्णता ? गोयमा ! जहन्नेणं अट्ठसंवच्छराणि उनकोसेणं दस सागरोवमकोडाकोडोओ। दसवाससयाई अबाधा, अबाहूणिया कम्मठिई कम्मणिसेओ। पुरिसवेदे णं भंते ! किंपगारे पण्णते? गोयमा ! वणववग्गिजालसमाणे पण्णत्ते / से तं पुरिसा। [57] हे भगवन् ! पुरुषवेद की कितने काल की बंधस्थिति है ? गौतम ! जघन्य आठ वर्ष और उत्कृष्ट दस कोडाकोडी सागरोपम की बंधस्थिति है। एक हजार वर्ष का अबाधाकाल है / अबाधाकाल से रहित स्थिति कर्मनिषेक है (उदययोग्य है)। भगवन् ! पुरुषवेद किस प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! वन को अग्निज्वाला के समान है / यह पुरुष का अधिकार पूरा हुमा / विवेचन--पुरुषवेद की जघन्य स्थिति पाठ वर्ष की है क्योंकि इससे कम स्थिति के पुरुषवेद के बंध के योग्य अध्यवसाय ही नहीं होते। उत्कर्ष से उसकी स्थिति दस कोडाकोडी सागरोपम की है। स्थिति दो प्रकार की कही गई है-(१) कर्मरूप से रहने वाली और (2) अनुभव में आने वाली। यह जो स्थिति कही गई है वह कर्म-प्रवस्थान रूप है। अनुभवयोग्य जो स्थिति होती है वह अबाधाकाल से रहित होती है। अबाधाकाल पूरा हए बिना कोई भी कर्म अपना फल नहीं दे सकता / अबाधाकाल का प्रमाण यह बताया है कि जिस कर्म की उत्कृष्ट स्थिति जितने कोडाकोडी सागरोपम की होती है उसकी अबाधा उतने ही सौ वर्ष की होती है। पुरुषवेद की उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोडी सागरोपम की है, अत: उसकी अबाधा दस सौ (एक हजार) वर्ष होती है। अबाधाकाल से रहित स्थिति हो अनुभवयोग्य होती है-यही कर्मनिषेक है अर्थात् कर्मदलिकों की उदयावलिका में आने की रचनाविशेष है। पुरुषवेद को दावाग्नि-ज्वाला समान कहा है अर्थात् वह प्रारम्भ में तीव्र कामाग्नि वाला होता है और शीघ्र शान्त भी हो जाता है। नपुंसक निरूपरण 58. से कि तं णपुंसका? णपुसका तिविहा पण्णता, तंजहा-नेरहय नपुसका, तिरिक्खजोणिय-नपुसका, मणुस्सजोणिय-णपुंसका। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org