________________ द्वितीय प्रतिपति : अल्पबहुत्व [159 बहुत्व बताया है / जिसमें पहला सामान्य से तिर्यंच, मनुष्य और देव पुरुषों को लेकर, दूसरा तियंचयोनिक जलचर, स्थलचर, खेचर पुरुषों को लेकर, तीसरा कर्मभूमिक आदि तीन प्रकार के मनुष्यों को लेकर, चौथा चार प्रकार के देवों को लेकर और पांचवां सबको मिश्रित करके अल्पबहुत्व बताया है। आदि के तीन अल्पबहुत्व तो जैसे इनकी स्त्रियों को लेकर कहे हैं वैसे ही यहां पुरुषों को लेकर कहना चाहिए। इन तीन अल्पबहुत्वों का यहाँ ‘यावत्' पद से ग्रहण किया है। वह स्त्रीप्रकरण के अल्पबहुत्व में देख लेना चाहिए / अन्तर केवल यह है कि 'स्त्री' की जगह 'पुरुष' पद का प्रयोग करना चाहिए। चौथा देवपुरुष सम्बन्धी अल्पबहुत्व सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र में साक्षात् कहा है / वह इस प्रकार है-सबसे थोड़े अनुत्तरोपपातिक देवपुरुष हैं, क्योंकि उनका प्रमाण क्षेत्रपल्योपम के असंख्येय भागवर्ती अाकाशप्रदेशों की राशि तुल्य है / उनसे उपरितन अवेयक देवपुरुष संख्येयगुण हैं / क्योंकि वे बृहत्तर क्षेत्रपल्योपम के असंख्येयभागवती आकाश प्रदेशों की राशि प्रमाण हैं। विमानों की बह संख्येयगुणता है। अनुत्तर देवों के पांच विमान हैं और उपरितन ग्रैवेयक देवों के सौ विमान हैं। प्रत्येक विमान में असंख्येय देव हैं। जैसे-जैसे विमान नीचे हैं उनमें देवों की संख्या प्रचुरता से है। इससे जाना जाता है कि अनुत्तरविमान देवपुरुषों से उपरितन ग्रैवेयक देवपुरुष संख्येयगुण हैं। उपरितन अवेयक देवपूरुषों की अपेक्षा मध्यम ग्रेवेयक देवपुरुष संख्येयगुण हैं / उनसे अधस्तन अवेयक देवपुरुष संख्येयगुण हैं, उनसे अच्युतकल्प के देव पुरुष संख्येयगुण हैं। उनसे आरणकल्प के देव पुरुष संख्येयगुण हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि यद्यपि प्रारण और अच्युत कल्प दोनों समश्रेणी और समान विमानसंख्या वाले हैं तो भी कृष्णपाक्षिक जीव तथास्वभाव से दक्षिण दिशा में अधिक रूप में उत्पन्न होते हैं। जीव दो प्रकार के हैं-कृष्णपाक्षिक और शुक्लपाक्षिक / जिन जीवों का कुछ कम अर्घपुद्गलपरावर्त संसार शेष रहा है वे शुक्लपाक्षिक हैं। इससे अधिक दीर्घ संसार वाले कृष्णपाक्षिक हैं।' कृष्णपाक्षिकों की अपेक्षा शुक्लपाक्षिक थोड़े हैं। अल्पसंसारी जीव थोड़े ही हैं / कृष्णपाक्षिक बहुत हैं, क्योंकि दीर्घसंसारी जीव अनन्तानन्त हैं / ___ शंका हो सकती है कि यह कैसे माना जाय कि कृष्णपाक्षिक प्रचुरता से दक्षिण दिशा में पैदा होते हैं ? आचार्यों ने कहा है कि ऐसा स्वाभाविक रूप से ही होता है। कृष्णपाक्षिक प्रायः दीर्घसंसारी होते हैं और दीर्घसंसारी प्रायः बहुत पापकर्म के उदय से होते हैं। बहुत पाप का उदय वाले जीव प्रायः क्रूरकर्मा होते हैं और क्रूरकर्मा जीव प्राय: तथास्वभाव से भवसिद्धिक होते हुए भी दक्षिण दिशा में उत्पन्न होते हैं / अतः दक्षिण दिशा में कृष्णपाक्षिकों की प्रचुरता होने से अच्युतकल्प देवपुरुषों की अपेक्षा प्रारणकल्प के देवपुरुष संख्येय गुण हैं / 1. जेसिमवड्ढो पुम्गलपरियट्टो सेसो य संसारो। ते सुक्कपक्खिया खलु अहिए पुण कण्हपक्खीपा // 2. पायमिह करकम्मा भवसिद्धिया वि दाहिणिल्लेसु / नेरइय-तिरिय-मणुया, सुराइठाणेसु गच्छन्ति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org