________________ प्रथम प्रतिपत्ति : स्थलचरों का वर्णन] [89 सनखपद-जिनके पावों के नख बड़े-बड़े हों वे सनखपद हैं। जैसे-कुत्ता, सिंह आदि / सनखपद अनेक प्रकार के हैं, जैसे-सिंह, व्याघ्र, द्वीपिका (दीपड़ा), रीछ (भालू), तरस, पाराशर, शृगाल (सियार), विडाल (बिल्ली), श्वान, कोलश्वान, कोकन्तिक (लोमड़ी), शशक (खरगोश), चीता और चित्तलक (चिल्लक) इत्यादि / इन चतुष्पद स्थलचरों में पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद तथा पूर्वोक्त 23 द्वारों की विचारणा जलचरों के समान जाननी चाहिए, केवल अन्तर इस प्रकार है। इनके शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट गव्यूतिपृथक्त्व (दो कोस से लेकर नौ कोस) की / आगम में पृथक्त्व का अर्थ दो से लेकर नौ की संख्या के लिए है। इनकी स्थिति जघन्य तो अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट चौरासी हजार वर्ष की है। शेष सब वर्णन जलचरों की तरह ही है / यावत् वे चारों गतियों में जाने वाले, दो गति से आने वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं / ___ परिसर्प स्थलचर-पेट और भुजा के बल चलने वाले परिसर्प कहलाते हैं / इनके दो भेद किये हैं-उरगपरिसर्प और भुजगपरिसर्प / उरगपरिसर्प के चार भेद हैं—अहि, अजगर, प्रासालिक और महोरग / ___अहि-ये दो प्रकार के हैं-दर्वीकर अर्थात फण वाले और मुकुली अर्थात् बिना फण वाले / दर्वोकर अहि अनेक प्रकार के हैं, यथा-आशीविष, दृष्टिविष, उपविष, भोगविष, त्वचाविष, लालाविष, उच्छवासविष, नि:श्वासविष, कृष्णसर्प श्वेतसर्प, काकोदर, दह्यपुष्प (दर्भपुष्प) कोलाह, मेलिमिन्द और शेषेन्द्र इत्यादि / मुकुली--बिना फन वाले मुकुली सर्प अनेक प्रकार के हैं, यथा--दिव्याक (दिव्य), गोनस, कषाधिक, व्यतिकुल, चित्रली, मण्डली, माली, अहि, अहिशलाका, वातपताका आदि / अजगर-ये एक ही प्रकार के होते हैं। आसालिक-प्रज्ञापनासूत्र में आसालिक के विषय में ऐसी प्ररूपणा की गई है-- 'भंते ! आसालिक कैसे होते हैं और कहाँ संछित (उत्पन्न) होते हैं ? गौतम ! ये प्रासालिक उर:परिसर्प मनुष्य क्षेत्र के अन्दर ढाई द्वीपों में निर्व्याघात से पन्द्रह कर्मभूमियों में और ' व्याघात की अपेक्षा पांच महाविदेह क्षेत्रों में, चक्रवर्ती के स्कंधावारों (छावनियों) में, वासुदेवों के स्कंधावारों में, बलदेवों के स्कंधावारों में, मंडलिक (छोटे) राजाओं के स्कंधावारों में, महामंडलिक (अनेक देशों के) राजाओं के स्कंधावारों में, ग्रामनिवेशों में, नगरनिवेशों में, निगम (वणिकवसति) निवेशों में, खेट (खेड़ा) निवेशों में, कर्वट (छोटे प्राकार वाले) निवेशों में, मंडल (जिसके 2 / / कोस के अन्तर में ग्राम न हो) निबेशों में, द्रोणमुख (प्रायः जल निर्गम प्रवेश वाला स्थान) निवेशों में, पत्तन और पट्टन निवेशों में, आकरनिवेशों में, आश्रमनिवेशों में, संवाध (यात्रीगृह) निवेशों में और राजधानीनिवेशों में जब इनका विनाश होने -वृत्ति 1. सुषमसुषमादिरूपोऽतिदुःषमादिरूपः कालो व्याघातहेतुः। 2. पत्तनं शकटैगम्यं, घोटकैनौभिरेव च / नौभिरेव तु यद् गम्यं पट्टनं तत्प्रचक्षते // -वृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org