________________ द्वितीय प्रलिपति : मनुष्यस्त्रियों का तरूप में अवस्थानकाल] [137 भगवन् ! देवस्त्री देवस्त्री के रूप में कितने काल तक रह सकती है? गौतम ! जो उसकी भवस्थिति है, वही उसका अबस्थानकाल है। विवेचन-मनुष्यस्त्रियों का सामान्यतः अवस्थानकाल वही है जो सामान्य तियंचस्त्रियों का कहा गया है / अर्थात् जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम है / इसकी भावना तिर्यचस्त्री के अधिकार में पहले कही जा चुकी है, तदनुसार जानना चाहिए। कर्मभूमि की मनुष्यस्त्री का अवस्थानकाल क्षेत्र की अपेक्षा अर्थात सामान्यतः कर्मक्षेत्र को लेकर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है, इसके बाद उसका परित्याग सम्भव है। उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम का है। इसमें सात भव महाविदेहों में और पाठवां भव भरत-ऐरावतों में। एकान्त सुषमादि प्रारक में तीन पल्यापम का प्रमाण समझना चाहिए। धमोचरण को लेकर जघन्य से एक समय है, क्योंकि तदावरणकर्म के क्षयोपशम की विचित्रता से एक समय की सम्भावना है। इसके बाद मरण हो जाने से चारित्र का प्रतिपात हो जाता है / उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि है, क्योंकि चारित्र का परिपूर्ण काल भी उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि ही है। भरत-ऐरवत कर्मभूमिक मनुष्यस्त्री का अवस्थानकाल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम का है / इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है पूर्वविदेह अथवा पश्चिमविदेह की पूर्वकोटि आयु वाली स्त्री को किसी ने भरतादि क्षेत्र में एकान्त सुषमादि काल में संहृत किया। वह यद्यपि महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न हुई है तो भी पूर्वोक्त मागध पुरुष के दृष्टान्त से भरत-ऐरावत की कही जाती है। वह स्त्री पूर्वकोटि तक जीवित रहकर अपनी आयु का क्षय होने पर वहीं भरतादि क्षेत्र में एकान्त सुषम प्रारक के प्रारम्भ में उत्पन्न हुई। इस अपेक्षा से देशोन पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम का उसका अवस्थानकाल हुआ। धर्माचरण की अपेक्षा कर्मभूमिज स्त्री की तरह जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि जानना चाहिए। पूर्व विदेह-पश्चिमविदेह कर्मभूमिज स्त्री का अवस्थानकाल क्षेत्र को लेकर जघन्य से अन्तर्मुहर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व है। वहीं पुनः उत्पत्ति की अपेक्षा से समझना चाहिए। धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि है / यह कर्मभूमिज स्त्रियों की वक्तव्यता हुई। अकर्मभूमिज मनुष्यस्त्री का सामान्यतः अवस्थानकाल जन्म की अपेक्षा से जघन्यतः देशोन पल्योपम है। अष्ट भाग प्रादि भी देशोन होता है अतः ऊनता को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून एक पल्योपम है / उत्कर्ष से तीन पल्योपम है / संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहर्त। यह अन्तर्महत आयु शेष रहते संहरण होने से अपेक्षा से है। उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम है / इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कोई पूर्व विदेह या पश्चिमविदेह की मनुष्यस्त्री जो देशोन पूर्वकोटि की आयु वाली है, उसका देवकुरु आदि में संहरण हुआ, वह पूर्व मागधदृष्टान्त से देवकुरु की कहलाई। वह वहाँ देशोन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org