________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: स्त्रीवेद की स्थिति] [145 स्त्रीवेद को स्थिति 51. इथिवेदस्स णं भंते ! कम्मस्स केवइयं कालं बंधठिई पण्णता? गोयमा ! जहन्नेणं सागरोवमस्स दिवड्डो सत्तभागो पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेण ऊणो; उक्कोसेणं पन्नरस सागरोवमकोडाकोडोओ, पण्णरस वाससयाई अबाधा, अबाहूणिया कम्महिती कम्मणिसेयो। इत्यिवेदे णं भंते ! किंपगारे पण्णत्ते ? गोयमा ! फुफुअग्गिसमाणे पण्णत्ते से त्तं इत्थियाओ। [51] हे भगवन् ! स्त्रीवेदकर्म की कितने काल की बन्धस्थिति कही गई है ? गौतम ! जघन्य से पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम 1 // सागरोपम के सातवें भाग (1) प्रमाण है / उत्कर्ष से पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम को बन्धस्थिति है। पन्द्रह सौ वर्ष का अबधाकाल है / अबाधाकाल से रहित जो कर्मस्थिति है वही अनुभवयोग्य होती है, अतः वही कर्मनिषक (कर्मदलिकों की रचना) है। हे भगवन् ! स्त्रीवेद किस प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! स्त्रीवेद फफु अग्नि (कारिष---वनकण्डे की अग्नि) के समान होता है। इस प्रकार स्त्रियों का अधिकार पूरा हुआ / विवेचन-स्त्री पर्याय का अनुभव स्त्रीवेद कर्म के उदय से होता है अतः स्त्रीवेद कर्म की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है। गौतमस्वामी ने प्रश्न किया कि भगवन् ! स्त्रीवेद को बन्धस्थिति कितने काल की है ? इसके उत्तर में प्रभु ने फरमाया कि स्त्रीवेद की जघन्य बन्धस्थिति डेढ सागरोपम के सातवें भाग में पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम है / जघन्य स्थिति लाने की विधि इस प्रकार है जिस प्रकृति का जो उत्कृष्ट स्थितिबन्ध है, उसमें मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागरोपम का भाग देने पर जो राशि प्राप्त होती है उसमें पल्योपम का असंख करने पर उस प्रकृति की जघन्य स्थिति प्राप्त होती है। स्त्रीवेद की उत्कृष्ट स्थिति 15 कोडाकोडी सागरोपम है / इसमें 70 कोडाकोडी सागरोपम का भाग दिया तो 24 कोडाकोडो सागरोपम प्राप्त होता है / छेद्य-छेदक सिद्धान्त के अनुसार इस राशि में 10 का भाग देने पर " कोडाकोडी सागरोपम को स्थिति बनती है। इसमें पल्योपम का असंख्यानवां भाग कम करने से यथोक्त स्थिति बन जाती है।' यह व्याख्या मूल टीका के अनुसार है / पंचसंग्रह के मत से भी यही जघन्यस्थिति का परिमाण है, केवल पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून नहीं कहना चाहिए। कर्मप्रकृति संग्रहणीकार ने जघन्य स्थिति लाने की दूसरी विधि बताई है। ज्ञानावरणी 1. 'सेसाणुकोसानो मिच्छत्तुक्कोसएण जं लद्धं' इति वचनप्रामाण्यात् / 2. वग्गुक्कोसठिईणं मिच्छत्तुक्कोसगेण णं लद्धं / सेसाणं तु जहण्णं पलियासंखेज्जगेणूणं // -कर्मप्रकृति सं. For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org