Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 94] [जीवाजीवाभिगमसूत्र इनमें वैक्रियशरीर भी पाया जाता है। अतएव औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण-ये चार शरीर पाये जाते हैं। ___ अवगाहनाद्वार में इन गर्भज जलचरों की उत्कृष्ट अवगाहना हजार योजन की जाननी चाहिए। संहननद्वार में इन गर्भज जलचरों में छहों संहनन सम्भव हैं। वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका और सेवार्त ये छह संहनन होते हैं। इनकी व्याख्या पहले 23 द्वारों की सामान्य व्याख्या के प्रसंग में की गई है।' संस्थानद्वार-इन जीवों के शरीरों के संस्थान छहों प्रकार के सम्भव हैं। वे छह संस्थान इस प्रकार हैं-समचतुरस्रसंस्थान, न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान, सादिसंस्थान, वामनसंस्थान, कुब्जसंस्थान और हुंडसंस्थान / इनकी व्याख्या पहले सामान्य द्वारों की व्याख्या के प्रसंग में कर दी गई है। लेण्याद्वार में छहों लेश्याएँ हो सकती हैं / शुक्ललेश्या भी सम्भव है। समुद्घातद्वार में आदि के पांच समुद्धात होते हैं / वैक्रियसमुद्धात भी सम्भव है। संजीद्वार में ये संज्ञी ही होते हैं असंज्ञी नहीं। वेदद्वार में तीनों वेद होते हैं / इनमें नपुंसक वेद के अतिरिक्त स्त्रीवेद और पुरुषवेद भी होता है। पर्याप्तिद्वार में छहों पर्याप्तियां और छहों अपर्याप्तियां होती हैं / वृत्तिकार ने पांच पर्याप्तियाँ और पांच अपर्याप्तियाँ कहीं हैं सो भाषा और मन की एकत्व-विवक्षा को लेकर समझना चाहिए। दृष्टिद्वार में तीनों (मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि) होते हैं / दर्शनद्वार में इन जीवों में तीन दर्शन हो सकते हैं, क्योंकि किन्हीं में अवधिदर्शन भी हो सकता है। ज्ञानद्वार में ये तीन ज्ञान वाले भी हो सकते हैं / क्योंकि इनमें से किन्हीं को अवधिज्ञान भी हो सकता है। अज्ञानद्वार में तीन अज्ञान वाले भी हो सकते हैं / क्योंकि किन्हीं को विभंगज्ञान भी हो सकता है। 1. वज्जरिसहनारायं पढमं बीयं च रिसहनारायं / नारायमद्धनाराय कीलिया तह य छेवढें // 1 // रिसहो य होइ पट्टो, बज्ज पुण कीलिया मुणेयब्वा / उसपो मक्कडबंधो, नारायं तं वियाणाहि // 2 // 2. 'साची' ऐसा भी पाठ है / साची का अर्थ शाल्मलि वृक्ष होता है। वह नीचे से प्रतिपुष्ट होता है, ऊपर से तदनुरूप नहीं होता। 3. समचउरंसे नग्गोहमंडले साइखुज्जबामणए। हुंडे वि संठाणे जीवाणं छ मुणेयव्वा // 1 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org