________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: स्त्रीत्व की निरन्तरता का कालप्रमाण] [131 स्त्रीत्व को निरन्तरता का कालप्रमाण 48. [1] इत्थीणं भंते ! इस्थिति कालो केचिचरं होइ? गोयमा ! एक्केणादेसेणं जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसं वसुत्तरं पलिग्रोवमसयं पुश्वकोडि. पुहुत्तमम्भहियं // 1 // एक्केणावेसेणं जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अट्ठारस पलिम्रोवमाई पुवकोडिपुटुत्तमम्भहियं // 2 // एक्केणावेसेणं जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं चउक्स पलिओवमाई पुवकोडिपुहुत्तमम्भहियाई // 3 // एक्केणावेसेणं जहन्नेणं एषकं समयं उक्कोसेणं पलिओवमसयं पुवकोडिपुहुत्तमन्भहियं // 4 // एक्केणादेसेणं जहणेणं एक्कं समयं उक्कोसं पलिओवमहत्तं पुखकोडिपुत्तमम्भहियं // 5 // [48-1] हे भगवन् ! स्त्री, स्त्रीरूप में लगातार कितने समय तक रह सकती है ? गौतम ! एक अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक सौ दस पल्योपम तक स्त्री, स्त्रीरूप में रह सकती है / 11 दूसरी अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक अठारह पल्योपम तक रह सकती है / 2 / तीसरी अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक चौदह पल्योपम तक कह सकती है / 31 चौथी अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक सौ पल्योपम तक रह सकती है / 4 / पांचवीं अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक पल्योपमपृथक्त्व तक रह सकती है।५। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में प्रश्न किया गया है कि स्त्री, स्त्री के रूप में लगातार कितने समय तक रह सकती है ? इस प्रश्न के उत्तर में पांच आदेश (प्रकार-अपेक्षाएँ) बतलाये गये हैं। वे पांच अपेक्षाएँ क्रम से इस प्रकार हैं (1) पहली अपेक्षा से स्त्री, स्त्री के रूप में लगातार जघन्य से एक समय एक और उत्कृष्ट से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक सौ दस (110) पल्योपम तक हो सकती है, इसके पश्चात् अवश्य परिवर्तन होता है / इस आदेश की भावना इस प्रकार है कोई स्त्री उपशमश्रेणी पर आरूढ हई और वहां उसने वेदत्रय का उपशमन कर दिया और अवेदकता का अनुभव करने लगी / बाद में वह वहाँ से पतित हो गई और एक समय तक स्त्रीवेद में रही और द्वितीय समय में काल करके (मरकर) देव (पुरुष) बन गई। इस अपेक्षा से उसके स्त्रीत्व का काल एक समय का ही रहा / अतः जघन्य से स्त्रीत्व का काल समय मात्र ही रहा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org