________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : तिर्यञ्चस्त्री का तप में अवस्थानकाल] (4) चौथी अपेक्षा से स्त्रीवेद का अवस्थानकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक सौ पल्योपम है। एक समय की भावना प्रथम आदेशानुसार है / उत्कृष्ट को भावना इस प्रकार है पूर्वकोटि प्रायु वाली मनुष्यस्त्री या तिर्यचस्त्री रूप में पांच छह बार पूर्व की तरह रहकर सौधर्मदेवलोक में 50 पल्योपम की उत्कृष्ट अायुवाली अपरिगृहीता देवी के रूप में दो बार उत्पन्न होने पर 50+50-100 पल्योपम और पूर्वकोटिपृथक्त्व तिर्यंच-मनुष्यस्त्री का काल मिलाने पर यथोक्त अवस्थानकाल पूर्वकोटिपृथकत्व अधिक सो पल्योपम होता है।४। (5) पांचवीं अपेक्षा से स्त्रीवेद का अवस्थानकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक पल्योपमपृथक्त्व है / जघन्य की भावना पूर्ववत् / उत्कृष्ट की भावना इस प्रकार है कोई जीव मनुष्यस्त्री या तिर्यंचस्त्री के रूप में पूर्वकोटि आयुष्य सहित सात भव करके आठवें भव में देवकरुयादिकी तीन पल्योपम की स्थिति वाली स्त्रियों में स्त्रीरूप में स्त्रीरूप से उत्पन्न हो, वहाँ से मर कर सौधर्म देवलोक की जघन्य स्थिति वाली (पल्योपम स्थिति वाली) देवियों में देवीरूप से उत्पन्न हो, इसके बाद अवश्य वेदान्तर होता है। इस प्रकार पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक पल्योपम, पृथक्त्व प्रमाण स्त्रीवेद का अवस्थानकाल होता है / / उक्त पांच आदेशों में से कौनसा आदेश समीचीन है, इसका निर्णय अतिशय ज्ञानी या सर्वोत्कृष्ट श्रुतलब्धिसम्पन्न ही कर सकते हैं। वर्तमान में वैसी स्थिति न होने से सूत्रकार ने पांचों आदेशों का उल्लेख कर दिया है और अपनी ओर से कोई निर्णय नहीं दिया है। हमें तत्त्व केवलिगम्य मानकर पांचों आदेशों को अलग अलग अपेक्षाओं को समझना चाहिए / तिर्यञ्चस्त्री का तद्रूप में अवस्थानकाल [2] तिरिक्खजोणिस्थी णं भंते ! तिरिक्खजोणिस्थित्ति कालओ केवच्चिरं होति ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं पुग्धकोडिपुहुत्तमम्भहियाई। जलयरीए जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण पुश्वकोडिपुहुत्तं / चउप्पदथलयरतिरिक्खजोणित्थी जहा ओहिया तिरिक्खजोणित्थी। उरपरिसप्पी-भुयपरिसप्पित्थीणं जहा जलयरीणं, खहयरित्थो णं जहण्णणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेण पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं पुवकोडिपुहुत्तमम्भहियं / [48] (2) हे भगवन् ! तिर्यञ्चस्त्री तिर्यञ्चस्त्री के रूप में कितने समय तक (लगातार) रह सकती है ? __ गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रह सकती है। जलचरी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व तक रह सकती है। चतुष्पदस्थलचरी के सम्बन्ध में औधिक तिर्यंचस्त्री की तरह जानना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org