Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम प्रतिपत्ति : मनुष्यों का प्रतिपादन] [105 ___ सरागदर्शन और सरागचारित्र से तात्पर्य कषाय को विद्यमानता जहाँ तक बनी रहती है वहां तक का दर्शन और चारित्र सरागदर्शन और सरागचारित्र जानना चाहिए / कषायों की उपशान्तता तथा क्षीणता के साथ जो दर्शन और चारित्र होता है वह वीतरागदर्शन और वीतरागचारित्र है / अकषाय रूप यथाख्यातचारित्र दो प्रकार का है—छाअस्थिक और कैवलिक / ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थानवी जीवों के छाद्यस्थिक यथाख्यातचारित्र होता है और तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानवी जीवों के कैवलिक यथाख्यातचारित्र होता है। इसलिये यथाख्यातचारित्र-आर्य उक्त प्रकार से दो तरह के हो जाते हैं। यह संक्षेप में प्रार्य-मनुष्यों का वर्णन हुा / विस्तृत जानकारी के लिए प्रज्ञापनासूत्र पढ़ना चाहिए। ये मनुष्य संक्षेप से पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। इन मनुष्यों के सम्बन्ध में 23 द्वारों की विचारणा इस प्रकार है शरीरद्वार--मनुष्यों में पांचों-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर पाये जाते हैं। अवगाहना-जघन्य से इनकी अवगाहना अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से तीन कोस है। संहनन-छहों संहनन पाये जाते हैं। संस्थान-छहों संस्थान पाये जाते हैं / कषायद्वार-क्रोधकषाय वाले, मानकषाय वाले, मायाकषाय वाले, लोभकषाय वाले और अकषाय वाले (वीतराग मनुष्य की अपेक्षा) भी होते हैं। संज्ञाद्वार-चारों संज्ञा वाले भी हैं और नोसंज्ञी भी हैं / निश्चय से वीतराग मनुष्य और व्यवहार से सब चारित्री नोसंज्ञोपयुक्त हैं।' लोकोत्तर चित्त की प्राप्ति से वे दसों प्रकार की संज्ञा से युक्त हैं। लेण्याद्वार--छहों लेश्या भी पायी जाती हैं और अलेश्यी भी हैं। परम शुक्लध्यानी अयोगिकेवली अलेश्यी हैं। इन्द्रियद्वार-पांचों इन्द्रियों के उपयोग से उपयुक्त भी होते हैं और केवली की अपेक्षा नोइन्द्रियोपयुक्त भी हैं। समुद्घातद्वार-सातों समुद्घात पाये जाते हैं / क्योंकि मनुष्यों में सब भाव संभव है। संजीद्वार-संज्ञी भी हैं और नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी भी हैं। केवली की अपेक्षा नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी हैं। 1. निर्वाणसाधकं सर्वं ज्ञेयं लोकोत्तराश्रयम् / संज्ञाः लोकाश्रयाः सर्वाः भवांकुरजलं परं / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org