Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 114] [जीवाजीवाभिगमसूत्र अवपिणियां होती हैं, उतनी अनन्त अवसर्पिणी-उत्सपिणी तक स्थावर के रूप में रह सकता है / पुद्गलपरावर्तों की असंख्येयता को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि प्रावलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं उतने पुद्गलपरावर्त जानने चाहिए। __इतना कालमान वनस्पतिकाय की अपेक्षा से समझना चाहिए, पृथ्वीकाय-अपकाय की अपेक्षा से नहीं। क्योंकि पृथ्वीकाय अप्काय की उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण है। प्रज्ञापनासूत्र में यह बात स्पष्ट की गई है। यह वनस्पतिकायस्थिति काल सांव्यवहारिक जीवों की अपेक्षा से समझना चाहिए। असांव्यवहारिक जीवों की कायस्थिति को अनादि समझना चाहिए। जैसा कि विशेषणवती ग्रन्थ में कहा गया है-'ऐसे अनंत जीव हैं जिन्होंने त्रसत्व को पाया ही नहीं है। जो निगोद में रहते हैं वे जीव अनन्तानन्त हैं। कतिपय असंव्यवहार राशि वाले जीवों की कायस्थिति अनादि-अनन्त है / अर्थात् वे अव्यवहार राशि से निकल कर कभी व्यवहार राशि में आवेंगे ही नहीं। कतिपय असंव्यवहारराशि वाले जीव ऐसे हैं जिनकी कायस्थिति अनादि किन्तु अन्त वाली है अर्थात् वे व्यवहारराशि में आ सकते हैं। जैसाकि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषणवती में कहा है कि 'संव्यवहारराशि से जितने जीव सिद्ध होते हैं, अनादि वनस्पतिराशि से उतने ही जीव व्यवहारराशि में आ जाते हैं / त्रसजीव सरूप में कितने समय तक रह सकते हैं, इसका उत्तर दिया गया है कि जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से असंख्येय काल तक / उस असंख्येय काल को काल और क्षेत्र से स्पष्ट किया गया है / काल से असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी तक और क्षेत्र से असंख्यात लोकों में जितने आकाशप्रदेश हैं उनका प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार करने में जितनी उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियां लगती हैं, उतने काल तक त्रसजीव त्रस के रूप में रह सकता है। इतनी कायस्थिति गतिस-तेजस्काय और वायुकाय की अपेक्षा से ही सम्भव है, लब्धित्रस की अपेक्षा से नहीं / लब्धित्रस की उत्कर्ष से कायस्थिति कतिपय वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम की ही है। अन्तर-स्थावर जीव के स्थावरत्व को छोड़ने के बाद फिर कितने समय बाद वह पुनः स्थावर बन सकता है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल से और क्षेत्र से असंख्यात लोक का अन्तर पड़ता है। इतना अन्तर तेजस्काय, वायुकाय में जाने की अपेक्षा से सम्भव है / अन्यत्र जाने पर इतना अन्तर सम्भव नहीं है। सकाय के सत्व को छोड़ने के बाद कितने समय बाद पुनः सत्व प्राप्त हो सकता है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल जितना अन्तर है। अर्थात् उत्कृष्ट से अनन्त-अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों का और क्षेत्र से अनन्त लोक का अन्तर पड़ता है। इसकी 1. अस्थि अणंता जीवा, जेहिं न पत्तो तसाइपरिणामो। तेवि अणताणता निगोयवासं अणुवसंति // --विशेषणवती 2. सिझंति जत्तिया किर इह संववहारजीवरासिमझायो। इंति प्रणाइवणसइरासीमो तत्तिया तंमि॥ -विशेषणवती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org